हृदय घाउ मेरे, पीर रघुबीरै।
पाइ सँजीवनि जागि कहत यों प्रेम पुलकि बिसराय सरीरै ॥
मोहिं कहा बूझत पुनि पुनि जैसे पाठ अरथ चरचा कोरै।
सोभा सुख छति लाहु भूप कहँ, केवल कांति मोल हीरै ॥
तुलसी सुनि सौमित्र-बचन सब धरि न सकत धीरौ धीरै।
उपमा राम-लखन की प्रीति की क्यों 'दीजै खीरै-नीरै॥3॥
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हृदय घाउ मेरे, पीर रघुबीरै।
पाइ सँजीवनि जागि कहत यों प्रेम पुलकि बिसराय सरीरै ॥
मोहिं कहा बूझत पुनि पुनि जैसे पाठ अरथ चरचा कोरै।
सोभा सुख छति लाहु भूप कहँ, केवल कांति मोल हीरै ॥
तुलसी सुनि सौमित्र-बचन सब धरि न सकत धीरौ धीरै।
उपमा राम-लखन की प्रीति की क्यों 'दीजै खीरै-नीरै॥3॥
अर्थ ➲ युद्ध में घायल होने के बाद संजीवनी बूटी के उपचार से जैसे ही श्री लक्ष्मण वीरघातनी शक्ति के प्रभाव से मुक्त होकर उठ कर बैठे, ऐसा लगा जैसे कि वे अभी सो कर उठे हों। जब वानर वीर लक्ष्मण से उनका हालचाल पूछने लगे तो लक्ष्मण मुस्कुरा कर बोले मुझे शक्ति तो मुझे लगी थी, घाव तो मेरे हृदय में था लेकिन मुझे पीड़ा नहीं हो रही थी। वानरवीरों ने पूछा तो फिर पीड़ा किसको हो रही थी? लक्ष्मण बोले भले ही घाव मुझे लगा लेकिन पीड़ा मेरे भाई श्रीराम को हो रही थी। जिस तरह शिशु अपनी माता की गोद में निश्चल भाव से सोता है, वैसे ही मैं भैया श्रीराम के गोद में निश्चल भाव से सो रहा था। रही पीड़ा की बात तो वह पीड़ा तो रघुवर जी यानी श्रीराम को हो रही थी।
तुलसीदास कहते हैं कि राम-लक्ष्मण में एक-दूसरे प्रति प्रेम तो अनूठा है,
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