Sociology, asked by Bhaveshyeole9125, 11 months ago

ह्यूम के संशयवाद की विस्तार से व्याख्या करें।

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Answered by brainlistgirl107
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बात जानने या कहने का कोई अधिकार नहीं। कोई कोई विचारसमीक्षक प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक काँट को भी संशयवादियों में शामिल कर लेते हैं; परंतु उन्हें संशयवादी न कहकर अज्ञेयवादी (Agnostic) कहना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि उन्होंने वस्तुओं के वास्तविक या पारमार्थिक स्वरूप (Noumena) को अज्ञेय या बुद्धि द्वारा अगम्य बतलाया है, संदेहास्पद नहीं। और कम से कम कार्यजगत् (phenomena) को समझ सकने की क्षमता तो उन्होंने बुद्धि में मानी ही है।

भारतवर्ष के कुछ संशयवादियों का उल्लेख "श्रामण्यफलसूत्र" आदि कुछ बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। उदाहरणार्थ, अजितकेसकंबली नामक एक विचारक का कहना था कि यथार्थ ज्ञान कभी संभव नहीं और गायकवाड़ ओरिएंटल सीरीज में प्रकाशित "तत्तवोपल्लवसिंह" नामक पांडुलिपि के लेखक श्री जयराशि ने किसी भी प्रमाण को, यहाँ तक कि प्रत्यक्ष प्रमाण को भी, असंदिग्ध ज्ञान का साधन नहीं माना। कभी-कभी कुछ लोग "स्यादस्ति स्यात् नास्ति" आदि शब्दों द्वारा प्रतिपादित जैन दर्शन के स्याद्वाद का भी संशयवाद समझने लगते हैं। परंतु वस्तुत: स्याद्वाद प्रतिपादित "स्यात्" शब्द का प्रयोग तत्तत् वाक्य की संदिग्धता (अथवा असत्यता) का नहीं किंतु उसे सत्य की सापेक्षता का द्योतक है। स्वाद्वाद को परामर्शों या निर्णयो का सत्यत्व, परिस्थिति एवं प्रसंगानुकूल, स्वीकार्य है।

चाहे संशयवादी स्वयं कुछ भी कहें, संशय की मानसिक अवस्था कोई सुख की अवस्था नहीं होती ("न सुखं संशयात्मन:" गीता, अ. 4, श्लोक 40)। और पूर्ण रूप से संशयवादी होना अत्यंत कठिन ही नहीं, किंतु असंभव है।

स्वयं संशयवाद की स्वीकृति ही उसकी मान्यता का खंडन कर देती है। यदि किसी भी प्रकार का निश्चित ज्ञान नहीं हो सकता, तो फिर यह निश्चय रूप से कैसे कहा जा सकता है कि किसी भी प्रकार का निश्चित ज्ञान संभव नहीं। या तो संशयवाद की मान्यता असमीचीन है या फिर स्वयं संशयवाद "वदतोव्याघात दोष" से दूषित सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त, हमारे व्यावहारिक जीवन का एक एक कार्य तत्संबंधी पदार्थ या व्यक्ति के निश्चित ज्ञान की मान्यता पर निर्भर रहता है। वह संशयवाद को पूर्णतया मान लेने पर चल ही नहीं सकता। इसीलिए तो श्रीमद्भगवद्गीता में "संशयात्मा विनश्यति" आदि शब्दों द्वारा संशयवाद को अग्राह्य ठहराया है। परंतु, साथ ही साथ, यह मानने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपरीक्षित परंपरागत मान्यताओं की अंध स्वीकृति भी विचारों के विकास में बाधा डालती है। अत: कभी कभी सामान्य रूप से स्वीकृत तथाकथित सत्यों को संदेह की दृष्टि से देखना भी ज्ञानवृद्धि के लिए आवश्यक हो जाता है जैसा भामतीकार श्री वाचस्पति मिश्र ने कहा है, संशय जिज्ञासा को जन्म देता है (जिज्ञासा संशयस्य कार्यम्) और जिज्ञासा तो ज्ञान के लिए वांछनीय है ही। और काँट महोदय की यह उक्ति कि ह्यूम के "संशयवाद ने मुझे वैचारिक रूढ़ियों की निद्रा से जगा दिया", इस सत्य को प्रमाणित करती है। परंतु बुद्धि या मन को संशय रूपी रंग से पूर्णतया रँग लेना और प्रत्येक बात पर संदेह करना ठीक वैसा ही है जैसा हाथों में मैल न होने पर भी किसी पागल द्वारा उनका सतत और निरंतर धोया जाना।

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