हम किस भाषा से उज्जवल भविष्य का निर्माण कर सकते है
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हिंदी भाषा की वर्तमान स्थिति एवँ उसके भविष्य के विषय मेँ प्रायः हताशापूर्ण विचार सुनने-पढ़ने को मिलते हैँ परंतु वस्तुस्थिति यह है कि आज हिंदी की स्थिति पूर्व से अधिक सुदृढ़ है एवँ उसका भविष्य अधिक उज्ज्वल है। किसी भाषा का भविष्य मुख्यतः चार मानकों से नापा जा सकता हैः जनमानस में उस भाषा की प्रतिष्ठा, जीविकोपार्जन हेतु भाषा की उपयोगिता, भाषा के प्रसार माध्यमों की निरावरोध उपलब्धता एवँ भाषा में अन्य भाषाओँ के आवश्यक शब्दों को समाहित कर लेने की क्षमता। इन चारों ही मानकों पर हिंदी की स्थिति पहले से बहुत अच्छी है।
स्वतंत्रता के पश्चात बीसियों वर्ष तक स्थिति यह रही कि हिंदी बोलने वालों को कोई भी अंग्रेज़ी में बोलने वाला व्यक्ति अपने से श्रेष्ठ लगने लगता था। आई.ए.एस., पी.सी.एस. आदि परीक्षाओं का माध्यम केवल अंग्रेज़ी होने के कारण भी सभी भारतीयों के मानस में अंग्रेज़ी का वर्चस्व था। आज हिंदी बोलने वाला व्यक्ति अंग्रेज़ी बोलने वाले के सामने बिना हीन-भाव की अनुभूति किए अपनी भाषा में बोलना जारी रखता है। जनमानस में हिंदी की प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ रही है।
आज हिंदी भाषी प्रदेशों की समस्त शासकीय सेवाओं एवं आई.ए.एस. सहित समस्त केंदीय सेवाओं में हिंदी के माध्यम से प्रवेश सम्भव है। सेना के जवानों सहित समस्त केंद्रीय कर्मचारियों को हिंदी सीखना अनिवार्य होता है। हिंदी के प्रसार हेतु केंद्रीय शासन के विभागों में हिंदी अधिकारी नियुक्त हैं और हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने हेतु हिंदी सप्ताह मनाया जाता है। यद्यपि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में अभी हिंदी के माध्यम से नौकरी पाना सम्भव नहीं है, परंतु जिस प्रकार अमेरिका, यूरोप और चीन भारत में उभरते ग्रामीण मध्यवर्ग में अपना माल बेचने को लालायित हो रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में भी हिंदी जीविकोपार्जन का साधन बन जायेगी।
यद्यपि भारत में अंग्रेज़ी आभिजात्य वर्ग की भाषा रही है, तथापि देश में उपलब्ध प्रसार माध्यम यथा सिनेमा, नाटक, कवि सम्मेलन, टी.वी., आदि में हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं का ही वर्चस्व रहा है और अब तो उनमें हिंदी की आंचलिक भाषाओं यथा अवधी, भोजपुरी, ब्रज, हरियाणवी, राजस्थानी आदि का भी प्रवेश हो गया है। हिंदी के समाचार पत्रों एवं उनके पढ़ने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। हिंदी के कवि सम्मेलनों एवं साहित्यिक गोष्ठियों की तो देश एवं विदेश दोनों में धूम मची हुई है। कम्पयूटर पर हिंदी का प्रयोग अभी कम है परंतु बढ़ रहा है। भारत मेँ प्रकाशित ई-पत्रिकायेँ यथा अनहद कृति, सृजनगाथा, गर्भनाल आदि भी हिंदी की श्रीवृद्धि मेँ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीँ हैँ.
हिंदी में अन्य भाषाओँ के प्रचलित शब्दों को अपनाने की परम्परा रही है। अरबी, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, बंगाली, गुजराती एवं दक्षिण भारत की भाषाओँ के शब्दों का समावेश हिंदी में अनवरत हो रहा है। अब तो दैनिक जागरण समूह के 'आईनेक्स्ट (Inext)' अख़बार ने 'हिंग्लिश' को अपना लिया है एवं अमर उजाला आदि ने अपने कतिपय लेखों को 'हिंग्लिश' में निकालना प्रारम्भ कर दिया है। टी.वी. के अधिकांश कार्यक्रम भी बहुभाषीय हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। इस प्रकार चाहे परिवर्तित रूप में ही सही हिंदी का प्रसार द्रुतगति से हो रहा है। हिंदी का यह रूप अंग्रेज़ी स्कूलों में शिक्षा पाए लोगों को भी समझ में आता है एवं उनमें स्वीकार्य है।
विगत 15-20 वर्षों से विदेशों में हिंदी का प्रसार तेज़ी से हुआ हैः 100 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है और बाज़ारवादी स्पर्धा में आगे रहने की ललक में किसी-किसी देश में हिंदी में क्रैश कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। विश्व हिंदी सम्मेलनों, कवि सममेलनों, विश्व हिंदू परिषद द्वारा संचालित प्राथमिक पाठशालाओं एवं संतों के प्रवचनों ने विदेशों में हिंदी के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यू. के. से प्रकाशित पुरवाई, अमेरिका से विश्व विवेक, कैनेडा से हिंदी चेतना एवं ई-पत्रिकाओं में शारजाह की अभिव्यक्ति एवं अनुभूति, कैनेडा की साहित्य कुंज, अमेरिका की ई-विश्वा, भारत में अम्बाला से सम्पादित व अमरीका से प्रकाशित अनहद कृति, आदि बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहीं हैं।
फिर भी राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है, यथा हिंदी का यू. एन. ओ. की भाषाओँ में प्रवेश, हिंदी को विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा की भाषा बनाना, हिंदी को उच्च न्यायालयों में स्थापित करना, हिंदी को राष्ट्रभाषा के समुचित व व्यावहारिक स्थान पर प्रतिष्ठित करना तथा हिंदी को कम्पयूटर एवं जीविकोपार्जन की भाषा बनाना आदि। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी की प्रतिस्पर्धा अंग्रेज़ी, मंदारिन, स्पैनिश, अरेबिक आदि भाषाओं से है जिनके पास हमसे अधिक संसाधन उपलब्ध हैं। हिंदी प्रेमियों को हिंदी की स्वीकार्यता एवं उपयोगिता बढ़ाने के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ की अभिवृद्धि के लिये भी सतत प्रयास करते रहना चाहिये। हमारा यह प्रयास ही देश की संस्कृति का अवलम्ब एवँ सम्वाहक होगा।
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