हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे, कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाएँगे। हम बहता जल पीनेवाले मर जाएँगे भूखे-प्यासे, कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से, 12 स्वर्ण-शृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले, बस सपनों में देख रहे हैं तरु की फुनगी पर के झूले। ऐसे थे अरमान कि उड़ते नील गगन की सीमा पाने, लाल किरण-सी चोंच खोल चुगते तारक-अनार के दाने। होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा-होड़ी, या तो क्षितिज मिलन बन जाता या बनती साँसों की डोरी।
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इन पंक्तियों में बताया गया है की हम पंछी खुले आकाश में गाने वाले है, पिंजरे में बंद हो जाने पर हम गा नहीं पाएंगे। सोने की पिंजरे की श्रृंखलाओं से टकराकर हमारे प्रसंचित पंख टूट जायेंगे। हम स्वतंत्र नदी से बहता जल पीने वाले पंछी इन पिंजरो में भूखे प्यासे मार जायेंगे।
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