Hindi, asked by taniyajhamtani, 20 days ago

हमें प्रकृति की हमें प्रकृति की ओर लौटना है पर अनुच्छेद लेखन ​

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Answered by saumyata3627
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प्रकृति में आज ऐसी कोई चीज नहीं जिसका मानव ने व्यापार न किया हो वह चाहे हवा हो या पानी। उसका यही लालच आज समस्त मानव जाति के लिए काल बनकर विश्व भर में लाखों लोगों की जान ले चुका है। महात्मा गांधी का कथन है कि पृथ्वी हमें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सभी प्रकार के साधन प्रदान करती है, लेकिन लालच को पूरा करने के लिए नहीं। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत समूचा वैश्विक जगत आर्थिक विकास की होड़ में इस कदर शामिल हुआ कि प्रकृति और जीव संबंध को धीरे-धीरे दरकिनार करता चला गया।

प्रकृति का दोहन करना वह अपना अधिकार मान बैठा। प्रकृति में आज ऐसी कोई चीज नहीं जिसका मानव ने व्यापार न किया हो फिर वह चाहे हवा हो अथवा पानी। उसका यही लालच आज समस्त मानव जाति के लिए काल बनकर विश्व भर में लाखों लोगों की जान ले चुका है।

मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए किया होता तो ठीक था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मनुष्य ने प्रकृति को अपना गुलाम बनाना चाहा, लाभ के लिए जंगल काटे, जंगलों में आग लगाई, खनन किया, पानी का दोहन भी किया गया, प्रदूषण फैलाया। प्रकृति के कार्यों में मनुष्य ने व्यवधान पैदा करना शुरू किया। ऐसा करते हुए मनुष्य को भरोसा हो गया था कि उसने प्रकृति को पूरी तरह पराजित कर दिया है। लेकिन वह शायद भूल कर बैठा कि प्रकृति शाश्वत है। परिणामस्वरूप प्रकृति द्वारा प्रहार तो होना ही था। एक सर्वेक्षण के माध्यम से स्पष्ट हुआ कि करीब 47 फीसद लोगों ने माना है कि प्रकृति का यह मानव को एक संदेश मात्र है कि अगर अब भी नहीं सुधरे तो समूल विनाश ज्यादा दूर नहीं है। लिहाजा प्रकृति पहले भी अनेक आपदाओं के माध्यम से मानव जाति को चेतावनी देती रही है। जैसे बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, निपाह वायरस, सार्स, मर्स आदि। इसी क्रम में कोरोना वायरस भी अपना भयावह तांडव विश्व में दिखा रहा है। महामारी केवल विनाशकारी ही नहीं होती, वह मानव जाति के लिए एक बड़ी शिक्षा देने का भी कार्य करती है, लेकिन उपभोक्तावादी मानसिकता और आर्थिक विकास की होड़ में लगे अहंवादी मानव ने कभी प्रकृति की शिक्षा से अपने मानस को परिवर्तित करने की कोशिश नहीं की। आज कोरोना रूपी वैश्विक महामारी मानव जाति को सीख दे रही है कि लालची मत बनो, प्रकृति का विनाश मत करो, दिखावा प्रेमी मत बनो।

इस आपदा नेमानव को यह सिखाने का कार्य भी किया है जो महान योगी, ऋषि हजारों वर्ष पहले यह संदेश दिया करते थे कि स्वयं तथा वातावरण को स्वच्छता प्रदान करो। शायद यही कारण था कि भारतीय पारंपरिक समाज में लोग अक्सर अपने साथ अंगोछा यानी तौलिया रखा करते थे और खांसते समय उससे मुंह ढक लेते थे। वर्ष 1991 के बाद से देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई जिसके बाद इंसान की आवश्यकता निरंतर बढ़ती गई, लेकिन वर्तमान लॉकडाउन ने जीवन के आदर्श रूप को दिखाने का प्रयास किया है।

इसलिए आज की परिस्थिति ने हम सबको स्थानीयकरण की ओर सोचने को फिर विवश कर दिया है। समय आ गया है कि हमें स्थानीय वस्तुओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। प्रकृति मनुष्य जाति से सदैव अनुकूल आचरण की अपेक्षा करती है, लेकिन मनुष्य के अत्यधिक उपभोक्तावादी होते जाने के कारण उसे स्वयं ही समय-समय पर.

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