हमारे बुजुर्गों का बचपन हमारे बचपन से किस प्रकार भिन्न था
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किस्मतवाले होते हैं वो लोग जिनके सिर पर बुजुर्गों का हाथ होता है" कुछ ऐसा ही कहा जाता है हमारे समाज में बुजुर्गों के सम्मान के लिए और ऐसा ही बहुत सा साहित्य भी मौजूद है। सत्संग, सामाजिक कार्यक्रमों आदि में भी कुछ इसी तरह के उपदेश श्रोताओं को सुनाये जाते हैं। लेकिन फिर भी समाज की वस्तुस्थिति बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं है बल्कि कहिये की नकारात्मक ही है।
आज हमारे समाज में हमारे ही बुजुर्ग एकाकी रहने को विवश हैं उनके साथ उनके अपने बच्चे नहीं हैं। गावों में तो स्थिति फिर भी थोड़ी ठीक है लेकिन शहरों में तो स्थिति बिलकुल भी विपरीत है। ज्यादातर बुजुर्ग घर में अकेले ही रहते हैं, और जिनके बच्चे उनके साथ हैं वो भी अपने अपने कामों में इस हद तक व्यस्त हैं की उनकेपास अपने माता - पिता से बात करने के लिए समय ही नहीं है।
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