हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौ लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।
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श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की दृढ़ता को प्रकट करते हुए गोपियों ने उद्धव से कहा कि श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं। अर्थात् जैसे हारिल पक्षी सदा अपने पंजों में लकड़ी पकड़े रहता है वैसे हम भी सदा श्रीकृष्ण का ध्यान करती रहती हैं।
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