हमारा मन पावन कैसे बनेगा
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मन-मस्तिष्क की साफ-सफाई के लिए व्यक्ति को समय-समय पर तथा निरन्तर अच्छे विचारों की खुराक लेते रहना चाहिये। अच्छे विचार व्यक्ति के मन में जमें हुए बुरे विचारों व सोच रुपी धूल-मिट्टी व मैल की साबुन, सर्फ, पोंछे इत्यादि की तरह समय-समय पर साफ-सफाई करते रहते है।
Explanation:
भारतीय धर्म, संस्कृति और अध्यात्म की पावन परंपरा में संध्या का वैसा ही महत्व है, जैसे शरीर को जीवित रखने के लिए पानी और भोजन। कारण यह है कि भोजन तन को पुष्ट करता है, तो संध्या हमारी आत्मा और बुद्धि को पुष्ट करती है। ऐसा कोई युग नहीं रहा है, जब संध्या को इंसान की बेहतरी के लिए जरूरी न माना गया हो। वेदों में कहा गया है कि संध्या ईश्वर को और उसकी सत्ता को याद करने का सबसे बेहतर जरिया है। इससे जहां रोजाना ईश्वर के निकट बैठकर अध्यात्म लाभ करने का मौका मिलता है, वहीं आत्म-समीक्षा और बुद्धि-परिमार्जन का काम भी बेहतर तरीके से हो जाता है। वेदोद्धारक महर्षि दयानंद ने संध्या के बारे में बहुत बढि़या बात लिखी है। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि रोजाना कम से कम एक घंटे संध्या जरूर करना चाहिए। हमारे महापुरुष और ऋषि-मुनि भी रोजाना संध्या किया करते थे। ग्रंथों के अनुसार भगवान राम भी प्रतिदिन संध्या करते थे। रामचरित मानस में लिखा है- संध्या करन चलय रघुराई।
संध्या करने का तरीका वेदों में बताया गया है। उसके अनुसार, स्वच्छ तन और वस्त्रों के साथ एकांत में पद्मासन पर बैठ जाएं। मन में संध्या करने का विचार करें। फिर ओऽम् का उच्चारण करें। वेदों का कहना है कि ओऽम् शब्द के उच्चारण से आत्मिक, बौद्धिक और शारीरिक तीनों तरह के फायदे होते हैं।
वेदों और योग-शास्त्र में ओऽम के बोलने पर स्वर-इंद्रियों पर पड़ने वाले असर का बहुत ही बारीकी से वर्णन किया गया है। वैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं कि ओऽम का उच्चारण करने से गले, फेफड़े, दिल और दिमाग पर सकारात्मक असर पड़ता है। योगशास्त्र के अनुसार, जब ओऽम का प्राणायाम के साथ उच्चारण किया जाता है, तब इसका तन और मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
संध्या में ओऽम के बाद गायत्री मंत्र की बड़ी महत्ता है। यह मंत्र सूर्यदेव की उपासना है कि वे हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें। इसलिए गायत्री मंत्र के उच्चारण से हम अपने भीतर के सारे विषय-विकार बाहर निकाल फेंकते हैं। जब मन विकार रहित हो जाता है, तब ओऽम् के साथ अन्य श्लोकों के साथ संध्या करने का विधान है।
महाभारत और योगभाष्य में वेदव्यास संध्या का महत्व बताते हैं, संध्या महज ईश्वर के साक्षात्कार करने और मन, बुद्धि, आत्मा को बेहतर बनाने का जरिया ही नहीं है, बल्कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को हासिल करने का बेहतर माध्यम भी है। क्योंकि इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हासिल करने के बारे में रोजाना बेहतर तरीके से विचार हो जाता है। इंसान के लिए बेहतर क्या है और बेकार क्या है, इसकी वेद मंत्रों (श्लोकों) में बहुत सुंदर विवेचना की गई है। उसके अनुसार, परमात्मा को धन्यवाद देते हुए उसकी बनाई सृष्टि और उसके अस्तित्व का वर्णन करते हुए खुद को अर्पित कर देना चाहिए। जैसे पानी में चीनी घुलकर पानीमय हो जाती है, उसी तरह से संध्या व ध्यान के जरिये आत्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिए।
संध्या में परमात्मा से सद्बुद्धि, सन्मार्ग और सत्संगति की प्रार्थना परमात्मा से की जाती है। क्योंकि इन तीनों के मिल जाने से दुनिया की सारी चीजें हासिल की जा सकती हैं। अथर्व वेद में ईश्वर से पवित्र भावना मांगने की बात है तो यजुर्वेद में सभी तरह की बुराइयों को दूर कर अच्छाइयों को प्रदान करने की बात है। ऋग्वेद में ईश्वर की सृष्टि की अदभुत रचना का बखान किया गया है।
संध्या में ईश्वर से हम कुछ भी मांगें, लेकिन ये चीजें तभी हासिल होंगी, जब हम बुद्धिपूर्वक कर्म के मार्ग का वरण करेंगे।