हमारे देश को जग्दगुरु कयों कहा जाता है?
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हमारे देश को जगद्गुरु कहने का एकमात्र कारण नहीं है क्योंकि हमारे देश की प्रतिष्ठा आज भी पूरे विश्व में गूंजती है हर बच्चा बच्चा भारत को जानता है तथा यहां के लोग बायोडायवर्सिटी होने के नाते हर लोग एक साथ मिल जुल कर रहते हैं जिससे भाईचारे का माहौल बना रहता है भारत की खोज कब हुई थी कोई नहीं बता सकता वह हमारे वास्कोडिगामा जी कह सकते हैं कि 1498 में भारत का खोजवा परंतु ऐसा कुछ नहीं है भारत की खोज कब हुई एक कोई नहीं जानता ऐसा माना जाता है कि भारत सबसे पुरानी ग्रंथ है ग्रंथ है यह एक ग्रंथ है ना कि एक देश है यह मात्र ऐसी देश है जिसमें हर तरह के लोग हर प्रकार के लोग एकजुट होकर रहते हैं तथा यह जगत का गुरु है देश में इस प्रकार की खोज इतनी पहले हो चुकी थी जो किसी ने आज तक नहीं की ऐसा माना जाता है कि महाभारत के समय LNT तक का आविष्कार हो चुका था परंतु आज भी हमारे संसाधन के कमी के कारण अभाव के कारण हम इसकी खोज नहीं कर पाए हैं
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भारत जगद्गुरु था और आगे भी रहेगा
By: Awgp Shantikunj Haridwar
एक भाव हिन्दू-धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है। उसके प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द-समूह को निःशेष कर डाला है। वह भाव यह है कि “मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी।” अद्वैत मत के ग्रंथ अत्यंत प्रमाणयुक्त तर्क के साथ इसमें इतनी बात और जोड़ देते हैं कि-”ईश्वर को जानना ईश्वर हो जाना है।”
इस भाव से वह उदार और अत्यन्त प्रभावशाली मत प्रकट होता है- जो न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा घोषित हुआ है, जिसे न केवल विदुर और धर्म व्याध आदिकों ने ही कहा है, वरन् अभी कुछ समय पूर्व दादूपंथी सम्प्रदाय के त्यागी संत निश्चलदास ने भी अपने ‘अपने सागर में’ स्पष्टतापूर्वक कहा है-
जो ब्रह्मविद् वही ब्रह्म ताकी वाणी वेद। संस्कृत और भाषा में करत भरम का छेद॥
इस प्रकार द्वैतवादियों के मत के अनुसार ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म हो जाना-यही वेदों समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है। उनमें जो अन्यान्य उपदेश दिये गये हैं वे इसी लक्ष्य की ओर प्रगति के लिये सोपान स्वरूप हैं। भाष्यकार भगवान शंकराचार्य की महिमा यही है कि उनकी प्रतिभा ने व्यास के भावों की ऐसी अपूर्व व्याख्या प्रकट की।
By: Awgp Shantikunj Haridwar
एक भाव हिन्दू-धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है। उसके प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द-समूह को निःशेष कर डाला है। वह भाव यह है कि “मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी।” अद्वैत मत के ग्रंथ अत्यंत प्रमाणयुक्त तर्क के साथ इसमें इतनी बात और जोड़ देते हैं कि-”ईश्वर को जानना ईश्वर हो जाना है।”
इस भाव से वह उदार और अत्यन्त प्रभावशाली मत प्रकट होता है- जो न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा घोषित हुआ है, जिसे न केवल विदुर और धर्म व्याध आदिकों ने ही कहा है, वरन् अभी कुछ समय पूर्व दादूपंथी सम्प्रदाय के त्यागी संत निश्चलदास ने भी अपने ‘अपने सागर में’ स्पष्टतापूर्वक कहा है-
जो ब्रह्मविद् वही ब्रह्म ताकी वाणी वेद। संस्कृत और भाषा में करत भरम का छेद॥
इस प्रकार द्वैतवादियों के मत के अनुसार ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म हो जाना-यही वेदों समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है। उनमें जो अन्यान्य उपदेश दिये गये हैं वे इसी लक्ष्य की ओर प्रगति के लिये सोपान स्वरूप हैं। भाष्यकार भगवान शंकराचार्य की महिमा यही है कि उनकी प्रतिभा ने व्यास के भावों की ऐसी अपूर्व व्याख्या प्रकट की।
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