Hindi, asked by ronakbpatel17, 1 month ago

हमारे देश की व्यवस्था को हम कैसे सुधार सकते हैं अपनी राय दीजिए​

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Answered by peehuthakur
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Answer:

साम्यवादी शासन के अंतर्विरोध

मुझे 1980 में अपने दोस्तों और सहपाठियों से मुलाकात के दौरान कुछ मुद्दों से रूबरू होने का मौका मिला, जब वे कम्युनिस्ट देशों में विपक्षी विचारधारा का बीज बो रहे थे.

वे जनसेवा की भावना से भरे नागरिक थे, जो अपनी गतिविधियों से गिरफ़्तार होने और जेल जाने का ख़तरा मोल ले रहे थे. इसे हम और आप पूरी तरह से मासूमियत ही मानेंगे. वे माता-पिता के राजनीतिक प्रोफाइल देखकर शिक्षा से वंचित किए गए बच्चों के लिए स्कूल चला रहे थे.

वे उन लेखकों, छात्रों, संगीतज्ञों और कलाकारों के समूह की भी मदद कर रहे थे, जिनके कार्यों के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई थी. वे दवा, बाइबिल, धार्मिक प्रतीकों और किताबों की तस्करी में शामिल हुए क्योंकि साम्यवादी शासन में परोपकार करने वाली संस्थाएं गैरक़ानूनी थी और धार्मिक संस्थाओं को कम्यूनिस्ट पार्टी नियंत्रित करती थी.

संपूर्ण सत्तावादी शासन व्यवस्था में लोकतांत्रिक चुनाव की जगह एक पार्टी वाली व्यवस्था अपनाई जाती है. यह नागरिक समाज और सरकार के बीच अंतर समाप्त कर देती है. कोई भी महत्वपूर्ण गतिविधि पार्टी नियंत्रण के परे नहीं होती.

पूर्वी यूरोप की परिस्थितियों का अध्ययन करने के बाद मैंने देखा कि राजनीतिक स्वतंत्रता विभिन्न संस्थाओं के नाज़ुक तंत्र पर निर्भर करती है. जिसे मेरे मित्र समझने और पुर्नजीवित करने की कोशिश में लगे थे.

संपत्ति का अधिकार

सवाल उठा है कि यह संस्थाएं कौन सी हैं? उनमें सबसे पहली न्यायिक स्वतंत्रता है. कम्यूनिस्ट पार्टी के शासन वाले देश में न्यायाधीश पार्टी की जरूरतों के हिसाब से फ़ैसले सुनाते हैं. जरूरत होने पर आखिरी पल में नए क़ानून बनाए जा सकते हैं.

अगर पार्टी चाहती है कि किसी व्यक्ति को जेल में रखना है, तो न्यायाधीश को उस व्यक्ति को जेल में रखना पड़ता है. अगर वह इनकार करता है तो उसे ख़ुद जेल जाना पड़ सकता है. ऐसी परिस्थिति में न्याय का शासन या क़ानून पार्टी का पहना हुआ मुखौटा मात्र होता है.

दूसरी संस्था सपंत्ति के अधिकार की है. कम्यूनिस्ट शासन में सामान्य लोगों के नाम कोई संपत्ति नहीं होती है. घर राज्य की संपत्ति होती है. लोगों के व्यक्तिगत संग्रह की वस्तुओं को बाज़ार में स्वतंत्र रूप से बेचा नहीं जा सकता.

लोगों का वेतन और पेंशन राजनीतिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है, जिसे किसी भी समय वापस लिया जा सकता है. ऐसी परिस्थिति में सारी अर्थव्यवस्था भूमिगत हो जाती है.

कोई क़ानून औपचारिक समझौता लागू नहीं करता. आप पड़ोसी को सब्ज़ी देकर उससे गणित का पाठ सीख सकते हैं लेकिन विवाद की स्थिति में क़ानून के समक्ष जाने पर दोनों को गैरक़ानूनी व्यापार के कारण जेल जाना पड़ेगा.

इस तरह से सभी तरह के लेनदेन आपसी भरोसे पर निर्भर होते हैं. इस कारण समाज में संघर्ष और संदेह वाली स्थिति बनी रहती है और राजनीति और क़ानून से कोई हल नहीं निकलता.

लोकतंत्र की ज़रूरत

17वीं शताब्दी में लॉक के समय से ही विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी भी राजनीतिक समाज की आवश्यक शर्त माना जाता रहा है. अमरीकी संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जगह दी गई, जिसका समर्थन नैतिकतावादी जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी किया था. इस स्वतंत्रता को मनुष्यता की आवश्यक शर्त के रूप में देखा जाता है.

दमित लोग और दमन के तरीके एक समाज से दूसरे समाज में बदलते रहते हैं लेकिन हमें समझना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी सामाजिक जीवन के विरुद्ध होती है.

जब हम किसी की धर्मनिष्ठता पर सवाल उठाते हैं, तो हम किसी की मान्यता पर सवाल नहीं उठा रहे होते, बल्कि जीवन की एक शैली और सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठा रहे होते हैं, जो उस पर निर्भर होता है.

साम्यवाद की विफलता को रूस के संदर्भ में समझा जा सकता है. साम्यवादी देशों में किसी भी फ़ैसले का विश्लेषण किए बिना उनको लागू किया गया और अंत में उनको मुंह की खानी पड़ी. डर है कि कहीं हमारे नेता भी तो वही गलती नहीं कर रहे और लोकतंत्र के झंडे तले फ़ैसले लेते जा रहे है और यह देखने के लिए भी नहीं रुक रहे कि लोकतंत्र की ज़रूरत क्या है?

Explanation:

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Answered by rajubhaigavde1089
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muje nahi pata bro and sister

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