हरिहर काका जैसी कहानी समाज में न दोहराई जाए इसके लिए क्या करना होगा, जो वास्तव में
सम्भव हों, ऐसे सुझाव दें ?
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Explanation:
हमारे पर पर मेहमान आरू हाथी
और Lockdown की वतह से यही
पर फ़स गर । दरअसल वे यहाँ
पर दवाई लेने आए थे और अब
वापस गाव
गगानगर जाने दिया सार।
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◾️हरिहर काका जैसी कहानी समाज में न दोहराई जाए इसके लिए क्या करना होगा, जो वास्तव में
सम्भव हों, ऐसे सुझाव दें ?
मेरे भाई साहब मुझसे पॉँच साल बडे थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्होने भी उसी उम्र में पढना शुरू किया था जब मैने शुरू किया; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दीबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भवन कि बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पाएदार बने।
मैं छोटा था, वह बडे थे। मेरी उम्र नौ साल कि,वह चौदह साल के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूँ।
वह स्वभाव से बडे अघ्ययनशील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिडियों, कुत्तों, बल्लियो की तस्वीरें बनाया करते थें। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते। कभी एक शेर को बार-बार सुन्दर अक्षर से नकल करते। कभी ऐसी शब्द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैने यह इबारत देखी-स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राघेश्याम, श्रीयुत राघेश्याम, एक घंटे तक—इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था। मैंने चेष्टा की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूँ; लेकिन असफल रहा और उसने पूछने का साहस न हुआ। वह नवी जमात में थे, मैं पाँचवी में। उनकि रचनाओ को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बडी बात थी।
मेरा जी पढने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियां उछालता, कभी कागज कि तितलियाँ उडाता, और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही क्या कभी चारदीवारी पर चढकर नीचे कूद रहे है, कभी फाटक पर वार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे है। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता-‘कहां थें?‘ हमेशा यही सवाल, इसी घ्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुंह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।
‘इस तरह अंग्रेजी पढोगे, तो जिन्दगी-भर पढते रहोगे और एक हर्फ न आएगा। अँगरेजी पढना कोई हंसी-खेल नही है कि जो चाहे पढ ले, नही, ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंगरेजी कि विद्धान हो जाते। यहां रात-दिन आंखे फोडनी पडती है और खून जलाना पडता है, जब कही यह विधा आती है। और आती क्या है, हां, कहने को आ जाती है। बडे-बडे विद्धान भी शुद्ध अंगरेजी नही लिख सकते, बोलना तो दुर रहा। और मैं कहता हूं, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नही लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूं, तुम अपनी आंखो देखते हो, अगर नही देखते, जो यह तुम्हारी आंखो का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं पास नही फटकता। हमेशा पढता रहा हूं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पडा रहता हूं फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कुद में वक्त गंवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पडे सडते रहोगे। अगर तुम्हे इस तरह उम्र गंवानी है, तो बंहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढी कमाई के रूपये क्यो बरबाद करते हो?’
मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगता। जवाब ही क्या था। अपराध तो मैंने किया, लताड कौन सहे? भाई साहब उपदेश कि कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकडे-टुकडे हो जाते और हिम्मत छूट जाती। इस तरह जान तोडकर मेहनत करने कि शक्ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा मे जरा देर के लिए मैं सोचने लगता-क्यों न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमे हाथ डालकर क्यो अपनी जिन्दगी खराब करूं। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घंटे–दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढूंगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से नक्शा बनाए, बिना कोई स्किम तैयार किए काम कैसे शुरूं करूं? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद कि मद बिलकुल उड जाती। प्रात:काल उठना, छ: बजे मुंह-हाथ धो, नाश्ता कर पढने बैठ जाना। छ: से आठ तक अंग्रेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढे नौ तक इतिहास, फिर भोजन और स्कूल। साढे तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घंण्टा आराम, चार से पांच तक भूगोल, पांच से छ: तक ग्रामर, आघा घंटा होस्टल के सामने टहलना, साढे छ: से सात तक अंग्रेजी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम।
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