हरिवंश राय बच्चन की जीवनी के चार खंड लिखिए
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1. हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के चार खंड
हरिवंशय राय बच्चन ने चार खंडों में अपनी आत्मकथा लिखी. साहित्य जगत में इन्हें भी मधुशाला जितनी ही ख्याति मिली लेकिन मधुशाला की तरह यह आम पाठकों तक पहुंचने में सफल ना हो सकी. किताब के चलन की बात करें, तो यह सच है कि कविताओं के मुकाबले कहानियों, उपन्यासों, आत्मकथाओं की मांग ज़्यादा होती है, लेकिन प्रचलन की बात करें तो काव्य रचनाएं जल्द ही लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाती हैं.
यही कारण है कि इन चार खंडों से ज़्यादा मधुशाला चर्चा में रही. लेकिन साहित्य जगत के धुरंधरों ने हरिवंश राय बच्चन जी की आत्मकथा की प्रशंसा करने में कोई कमी नहीं छोड़ी.
हिंदी साहित्य के जाने माने लेखक धर्मवीर भारती ने बच्चन की आत्मकथा के बारे में कहा था कि हिंदी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में पहले किसी ने भी अपने बारे में इतनी बेबाकी से नहीं कहा. धर्मवीर भारती की पत्नी पुष्पा भारती ने हरिवंश राय बच्चन की आत्म कथाओं के बारे में बताते हुए कहा था कि बच्चन की आत्मकथा का ही एक भाग 'क्या भूलूँ , क्या याद करूँ' उनकी सबसे पसंदीदा किताब है.
उनके अनुसार ये केवल आत्मकथा नहीं बल्कि उस समय का भारत है, उस समय के मानव मूल्यों का दर्शन है. आदमियों के बीच में रिश्ते कैसे होते थे, ये सारी चीज़ें हमें उनकी इस आत्मकथा से समझ में आती है.
'क्या भूलूं क्या याद करूं' बच्चन जी की आत्मकथा का पहला खंड है. , इसी तरह "नीड़ का निर्माण फिर" दूसरा खंड, "बसेरे से दूर" तीसरा तथी "‘दशद्वार’ से ‘सोपान’ तक" इस आत्मकथा का चौथा खंड है. एक तरह से ये आत्मकथाएं नहीं बल्की एक संपूर्ण महागाथा है.
यह पुस्तकें हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुईं. इसके लिए बच्चन जी भारतीय साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार -‘सरस्वती सम्मान’ से सम्मानित भी किए जा चुके हैं.
2. दो चट्टानें
हरिवंशय राय बच्चन की अन्य रचनाओं की तरह ही दो चटानें नामक काव्य रचना के बारे में ज़्यादा नहीं लिखा गया, लेकिन यह काव्य संग्रह बच्चन दी की सफलता में जड़ा एक बेशकीमती नगीना है. दरअसल इन कविताओं में प्रयोग किए जाने वाले शब्द मधुशाला में प्रयोग शब्दों से अधिक कठिन हैं, इसी कारण आम लोगों तक यह रचना उस तरह से नहीं पहुच पाई जिस तरह से मधुशाला पहुंची.
ये वही काव्य संग्रह है, जिसके कारण बच्चन को 1968 में देश का सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पुरस्कार, हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ.
बच्चन जी की कविताओं में बेहद गूढ़ अर्थ छुपे होते हैं. जैसे कि इसी किताब की एक कविता है, 'ड्राइंग रूम में मरता हुआ गुलाब'. कविता में बच्चन जी गुलाब से कहते हैं कि वह जब तक प्रकृति की गोद में था तब तक ऋतु-राज था. लोग उसे देख कर उसकी सुंदरता से आकर्षित होते थे लेकिन जब से वह ड्राइंग रूम में ला कर सजाया गया है. तब से उसकी सुंदरता खोने लगी है. एक तरह से यह कविता हमें प्रकृति का महत्व समझा रही है.
3. निशा निमंत्रण
इस कड़ी में बच्चन जी की अगली किताब है निशा निमंत्रण. यह किताब इस बात की गवाही है कि बच्चन जी ने सहज बोली में जिस तरह के से प्रेम को शब्दों में पिरोया, उस तरह से उनसे पहले और उनके समकालीन कोई अन्य कवि नहीं कर पाया. यह पुस्तक प्रेम गीतों का संकलन है. इस गीत संग्रह ने उस समय प्रेम का डंका पीटा था जब प्रेम का नाम लेना तक अपराध माना जाता था. इन गीतों ने उस दौर के प्रमियों को प्रेम का सही मतलब समझाया.
वर्ष 1938 में प्रकाशित इस गीत संग्रह की सबसे खास बात यह थी कि इसके सभी गीत 13-13 लाइन के थे. यही कारण है कि बच्चन जी की इस रचना को हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक माना गया. इस पुस्तक के गीत जहां एक तरफ सुख का अनुभव कराते हैं वहीं इसमें प्रेमी मन की पीड़ा को भी बहुत सुंदर तरीके से लिखा गया है.
इसी पुस्तक का गीत 'मैं कल रात नहीं रोया' उस प्रेमी के मन की पीड़ा का बखान है, जो अपनी प्रेमिका से दूर होते हुए डर रहा है लेकिन यह नहीं मान रहा कि इस डर ने उसे रात भर रुलाया है.
4. मधुबाला
बच्चन जी ने यह भांप लिया था कि मधु’ अथवा मदिरा के इर्द-गिर्द लिखी गयी रचनाएं लोगों को आकर्षित करती हैं तथा वह इन कविताओं के माध्यम से लोगों तक अपनी बात पहुंचा पाते हैं. शायद यही कारण था कि उन्होंने पहले ‘मधुशाला’ फिर ‘मधुबाला’ तथा फिर ‘मधुकलश’ की रचना की.
यह तीनों किताबें एक-एक वर्ष के अंतर से प्रकाशित हुईं. जब इन रचनाओं को रचा जा रहा था उस समय बच्चन जी की उम्र 27-28 वर्ष के आसपास थी. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है उनकी रचनाओं में यौवन और सौंदर्य रस की मात्रा भरपूर क्यों थी. बच्चन जी सभी को इन तीनों रचनाओं को एक साथ पढ़ने का आग्रह करते थे.
‘मधुबाला’ की रचना 1934-35 में हुई तथा इसे पहली बार 1936 में प्रकाशित किया गया. जिस तरह से मधुशाला में मदिरा के इर्दगिर्द रुबाईयां लिखी गयीं उसी तरह मधुबाला का केंद्र बनी लोगों को मदिरापान कराने वाली यौवना, जिसे उर्दू में साक़ी भी कहा जाता है. उस दौर में कवि-सम्मेलनों तथा काव्य गोष्ठियों में ‘मधुबाला’ को खूब सुना गया.