Hindi, asked by plzanswermyquestion, 10 months ago

"हस्तकला को बढ़ावा मिलना चाहिए" इस विषय पर अनुच्छेद लिखें

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Answered by amndubey3214
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रचनात्मकता मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति और क्षमता के बल पर मनुष्य ने अनेक कलाओं को जन्म दिया। इनमें से प्रत्येक कला की अपनी पृथक मौलिक विशेषताएं थीं। रुहेलखण्ड क्षेत्र प्रारम्भ से ही विविध हस्तकलाओं की भूमि रहा है। इस तथ्य की पुष्टि अहिच्छत्र इत्यादि पुरास्थलों के उत्खनन में प्राप्त विभिन्न प्रकार की कलाकृतियों से होती है। यहाँ की कलाओं में कुछ अपने परम्परागत रुप में विद्यमान हैं। ऐसी कलाओं के केन्द्र रुहेलखण्ड के गाँव हैं। दूसरी ओर कुछ कलाओं ने समय के साथ-साथ बढ़ती हुई माँग के अनुसार वृहद् और व्यावसायिक रुप ग्रहण कर लिया है। इस प्रकार की कलाओं के केन्द्र प्रायः रुहेलखण्ड क्षेत्र के नगर हैं। हालांकि परम्परागत ग्रामीण हस्तकलाएं भी व्यावसायिक रुप ग्रहण कर रही हैं, लेकिन उनका व्यावसायिक स्वरुप आस-पास के ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित है।

इस तरह रुहेलखण्ड की हस्तकलाओं को निम्नलिखित वर्गीकरण के अन्तर्गत समझा जा सकता है-

(1 ) परम्परागत ग्रामीण हस्तकलाएं

(2 ) व्यावसायिक रुप ग्रहण कर चुकी हस्तकलाएं

(1 ) परम्परागत ग्रामीण हस्तकलाएं

रुहेलखण्ड क्षेत्र के गाँवों में विभिन्न प्रकार की हस्तकलाओं के दर्शन होते हैं, जिनमें गाँव के स्री, पुरुष तथा बच्चे अत्यन्त निपुण हैं। इन कलाओं में अग्रलिखित प्रमुख हैं-

(i ) डलिया निर्माण

(ii ) चटौना निर्माण

(iii ) हाथ के पंखे

(iv ) सूप

(v ) मिट्टी के बर्तन

(i ) डलिया निर्माणः

रुहेलखण्ड क्षेत्र के गाँवों में डलिया निर्माण एक प्रमुख हस्तकला है। यह डलिया विभिन्न रंगों और डिजायनों में बनाई जाती हैं। ग्रामीण परिवार की महिलाएं इन डलियों को बनाने में अत्यन्त निपुण होती हैं। इन डलियों का निर्माण भरा नामक जंगली घास से निकली एक विशिष्ट प्रकार की छाल (बरुआ) से किया जाता है। यह जंगली घास यहाँ के गाँवों में आसानी से उपलब्ध है। सर्वप्रथम बरुआ की छाल की गोलाकार (रस्सी की आकृति के समतुल्य) बत्तियाँ बनाई जाती हैं। अब इन बत्तियों पर विभिन्न प्रकार के रंग लगाए जाते हैं। ये रंग विशिष्ट प्रकार के होते हैं तथा इनको गर्म पानी में घोलकर तैयार किया जाता है, ताकि यह पक्के बने रहें।

रंग सूख जाने के उपरान्त विभिन्न रंगों की बत्तियों को एक-दूसरे के ऊपर गोलाकृति में व्यवस्थित करके डलिया का आकार दिया जाता है। डलिया निर्मित हो जाने के उपरान्त कई बार डलिया के किनारों पर रंगे-बिरंगे कपड़ों की झल्लरें लगाई जाती हैं। प्रायः इन झल्लरों पर काँच के छोटे-छोटे टुकड़ों से भी सजावट की जाती है। इस प्रकार निर्मित डलिया देखने में अत्यन्त मोहक प्रतीत होती हैं। यह डलिया वजन में हल्की तथा बहु उपयोगी होती है।

(ii ) चटौना निर्माणः

पूजा तथा भोजन के दौरान बैठने के लिए आसन के रुप में प्रयुक्त चटौना रुहेलखण्ड की ग्रामीण कला का एक मुख्य अंग है। ग्रामीण परिवार की लड़कियाँ तथा महिलाएं चटौना बनाने में विशेष रुप से दक्ष होती हैं। इनको बनाने में भी भरा नामक जंगली घास से प्राप्त बरुआ की छाल प्रयुक्त होती है। डलिया निर्माण की भाँति चटौने को बनाने में भी सर्वप्रथम बरुआ की छाल की गोलाकार लम्बी बत्ती बनाई जाती हैं। अब इन बत्तियों पर गर्म पानी में पृथक-पृथक घोलकर तैयार किए गए विभिन्न रंग लगाए जाते हैं। रंग सूख जाने के उपरान्त उस बत्तियों को चक्राकार घुमाते हुए

तथा बत्ती की परतों को आपस में संयुक्त करते हुए चटौने को अन्तिम रुप दिया जाता है। चटौने को आवश्यकता के अनुरुप किसी भी आकार में बनाया जा सकता है। ये चटौना अत्यन्त हल्का तथा आरामदायक होता है। इसकी खूबसूरती के कारण लोग इसे अपने घरों में सजावट के लिए भी प्रयुक्त करते हैं।

(iii ) हाथ के पंखे:

रुहेलखण्ड क्षेत्र के ग्रामीण लोग हाथ के पंखे बनाने में विशेष रुप से दक्ष होते हैं। यह पंखे भी भरा से प्राप्त बरुआ की छाल से निर्मित होते हैं। सर्वप्रथम बरुआ की छाल के बारीक (लगभग 1/2 से.मी. चौड़े) तथा लम्बे टुकड़े काट लिए जाते हैं। अब इन टुकड़ों पर पृथक-पृथक विभिन्न रंग लगाए जाते हैं। इसके उपरान्त रंग-बिरंगे टुकड़ों को एक दूसरे में पिरोते हुए डिजायन-युक्त पंखा बुना जाता है। पंखे को मजबूती प्रदान करने के लिए इसके सिरों पर रंगीन कपड़ों की झल्लरें लगाई जाती हैं। यह झल्लरें पंखों को अनोखी सुन्दरता प्रदान करती हैं। तदुपरान्त पंखे के एक ओर लकड़ी का हत्था लगाकर इसे अन्तिम रुप दिया जाता है। यह पंखा झलने पर पर्याप्त हवा तो देता है साथ ही इसकी सुन्दरता भी देखते बनती है।

(iv ) सूप :

गेहूँ, दालें तथा अन्य अनाजों के साफ करने हेतु रुहेलखण्ड के ग्रामों में एक विशिष्ट प्रकार के हस्तनिर्मित सूप का प्रयोग किया जाता है। ये सूप प्रायः ग्रामीण परिवार के लोग नहीं बनाते हैं। इनकों बनाने वाले कारीगरों के पृथक समूह हैं। बदायूँ तथा बरेली जिले के गाँवों में ऐसे कारीगरों के अनेक समूह हैं। बदायूँ जिले के कुछ कारीगरों से सूप निर्माण की प्रक्रिया की जानकारी मिली। सूप का निर्माण सरकरा नामे पौधे की झाड़ियों से प्राप्त सिरकी से किया जाता है। इसके अतिरिक्त बाँस की खपच्ची, चमड़े का धागा तथा प्लास्टिक का तार इत्यादि सूप-निर्माण में प्रयुक्त अन्य वस्तुएं हैं। सर्वप्रथम सिरकियों को चमड़े के धागे, बाँस की खपच्ची तथा प्लास्टिक के तार की सहायता से आपस में सम्बद्ध किया जाता है। इसके उपरान्त बाँस की खपच्चियों की मदद से सूप के किनारों को मजबूती प्रदान की जाती है। बाँस की खपच्चियों की सहायता से सूप में हल्का सा घुमाव भी पैदा किया जाता है, ताकि अनाज साफ करने (या अनाज को फटकने) में आसानी रहे। इस सूप में पीछे की ओर लगभग चार इंच चौड़ी किनारी लगाई जाती है। यह किनारी सूप को पकड़ने तथा इसको दीवार पर टांगने में मदद देती है। इस प्रकार निर्मित सूप गाँवों के साथ-साथ शहरों में भी प्रयुक्त होते देखे जा सकते हैं। सूप निर्माण में प्रायः एक परिवार के समस्त सदस्य संलग्न होते हैं।

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