hasiyai लोग समाज में अलग-अलग क्यों रहते हैं
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। भारतीय समाज जिसे कभी गुलामी की हताशा से उबारने के लिये बुद्धिजीवियों , कवियों , शायरों ने उसके अतीत का स्मरण कराया था , वह आज तक उस पर आत्ममुग्ध है और दशकों से उसी के गौरव गान में निमग्न है , कि
" कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा ।" वर्तमान के संदर्भ में क्या यह वास्तव में सच है ? कभी जो भारतीय सांस्कृति का विस्तार सुदूर पूर्व में जावा , सुमात्रा , बाली आदि द्वीपों तक था । कभी जो भारतीय सांस्कृति हिन्दचीन में अंकोरवाट के मंदिरों से चीन और जापान तक आध्यात्मिकता का संदेश देती थी , आज वहां कम्बोडिया , लाओस , वियतनाम , थाईलेंड , मलेशिया , सिंगापुर आदि राष्ट्र आस्तित्व में आ चुके हैं । सुदूर पूर्व के जावा , सुमात्रा , बाली आदि द्वीप अब इन्डोनेशिया राष्ट्र के अंग हैं । कल तक जो भारत भूमि कहलाती थी , आज उस पर अफगानिस्तान , पाकिस्तान , बांग्लादेश , म्यमार और श्रीलंका आदि देशों का निर्माण हो चुका है । हम वास्तव में सिमिटते जा रहे हैं । मिटते जा रहे हैं । पर फिर भी गा रहे हैं और मान रहे है कि
" कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी " हमने कभी सोचा ही नहीं कि हम क्या थे और क्या हो गए हैं ? क्यों हो गए और कैसे हो गए ? एक हजार वर्षों से अधिक की गुलामी का इतिहास , प्रमाण है कि युद्धों में हम विजयी कम और पराजित अधिक हुए हैं । हम अपनी हर पराजय का ठीकरा चन्द जयचन्द्रों एवं मीरजाफरों के सिर फोड़ कर संतुष्ट हो गये कि हम दूसरों से नहीं , अपनों से ही पराजित हुए हैं । हमने कभी सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी की जयचन्द्र और मीरजाफर सदैव हमारे ही पाले में क्यों पनपे ? दूसरों के पाले में हम कभी कोई मीरजाफर या जयचन्द्र क्यो नही खोज पाए । क्या हमारी पराजयों में गद्दारों की भूमिका के अतिरिक्त कुछ अन्य गंभीर कारण नहीं थे ?
इस संदर्भ में , कभी पढ़ा पानीपत के तीसरे युद्ध का एक प्रसंग याद आ रहा है । भयंकर रूप से उफनाती यमुना के एक ओर विशाल मराठा सेना निश्चिन्त थी , कि दूसरी ओर अहमदशाह अब्दाली का अपेक्षाकृत छोटा लश्कर यमुना पार कर आक्रमण नहीं कर सकता । वहीं अब्दाली आक्रमण के अवसर की सतत खोज में था । एक सुबह उसने यमुना पार मराठों की सेना में अनेक स्थानों से धुआं उठता देखा । उसने अपने भारतीय सूचना प्रदाता से कारण पूछा तो उसने बताया कि मराठा सेना में अलग - अलग जातियों के सैनिक अपने भोजन अलग - अलग बना रहे हैं । वे एक दूसरे का बनाया अथवा छुआ भोजन ग्रहण नहीं करते । यह सुन कर तब तक असमंजित अब्दाली विश्वास से भर उठा , और बोला जो कौम साथ भोजन कर नहीं सकती , वह कौम कभी साथ लड़ नहीं सकती । और जो कौम साथ लड़ नहीं सकती , वह कौम कभी जीत नहीं सकती । वही हुआ पानीपत के उस तीसरे युद्ध का परिणाम । मराठों की अत्यन्त शर्मनाक हार और हमारी गुलामी के एक और अध्याय का प्रारम्भ ।