hasna bhi ek kala hai essay
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SubratoND
दुनिया यही जानती है पैसा कमाने और लड़की घुमाने में ही कारीगरी की आवश्यकता पड़ती है, पर आप जानते हैं कि भोजन चबाने से लेकर बोलने-बतियाने और हँसने-मुस्कुराने तक में कला की उपस्थिति अनिवार्य है। नहीं समझे... देखिए एक आदमजात लॉलीपॉप को पूरी नफासत से चाटता-काटता है, इतनी कि दूसरे की इच्छा (खाने की!) जग जाए तो दूसरा उसी लॉलीपॉप को इतने वीभत्स तरीके से ‘झोंकता’ है कि सामने वाले को वितृष्णा पैदा हो जाए... बोलने-बतियाने में निपुणता रखने वाले तो कहीं भी अपनी सल्तनत सजा सकता है।
मार्केटिंग से लेकर बाबागिरी तक, कहीं भी ये बड़ी आसानी से ‘फिट’ हो सकते हैं। अब रही हँसने-मुस्कुराने की बात... तो यहाँ तो ऐसा है महाराज कि हँसना-मुस्कुराना भी सब में ‘सूट’ नहीं करता। देखिए न किसी-किसी की सूरत ही ‘रोनी’ होती है। यही इनके चेहरे का स्थायी भाव बन जाता है। उदाहरण के लिए आप गुजरे जमाने की विख्यात फिल्म अभिनेत्री मीना कुमारी का नाम ले सकते हैं। मुर्दनी उनके चेहरे पर बिलकुल वैसी ही फबती थी जैसे गंजे के सिर पर बादाम का तेल।
पर यह सौभाग्य भी (बाकी सौभाग्यों की तरह) सबके नसीब में नहीं होता। विरले ही ऐसी मनहूसियत से अपना सौंदर्य और अपनी पर्सनालिटी चमका पाते हैं। पर कुछ ऐसे भी महानुभाव है जिन्हें हँसते हुए देखना किसी उपलब्धि से कम नहीं है। बच्चन साहब, मनमोहन सिंह, रतन टाटा और वेंगसरकर उनमें प्रमुख हैं।
कमाने और लड़की घुमाने में ही कारीगरी की आवश्यकता पड़ती है, पर आप जानते हैं कि भोजन चबाने से लेकर बोलने-बतियाने और हँसने-मुस्कुराने तक में कला की उपस्थिति अनिवार्य है। नहीं समझे... देखिए एक आदमजात लॉलीपॉप को पूरी नफासत से चाटता-काटता है।
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