हत-भाग्य हिन्दू-जाति ! तेरा पूर्व-दर्शन है कहाँ ?
वह शील, शुद्धाचार, वैभव, देख, अब क्या है यहां ?
क्या जान पड़ती वह कथा अब स्वप्न की-सी ही नहीं ?
हम हों वही, पर पूर्व-दर्शन दृष्टि आते हैं कहीं ?
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प्रसंग-- प्रस्तुत पद्यांश राष्ट्रकवि 'मैथिलीशरण गुप्त' जी द्वारा लिखित 'भारतभारती' काव्यकृति के भविष्यत् खण्ड
में संकलित 'उद्बोधन' शीर्षक कविता में से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में कवि ने भारतवासियों को उनके गौरवशाली
अतीत की याद दिलाते हुए उन्हें फिर से वैसी ही उन्नति प्राप्त करने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या-- कवि कहते हैं कि अरी अभागी हिन्दू-जाति ! आज तुम्हारा पहले जैसा रूप अर्थात् गौरव कहां है ? कुछ
तो अपना पतन देख आंखें खोलो। अतीत में तुम्हारा जो उत्तम स्वभाव था, तुम्हारा जो पवित्र व्यवहार और आचरण था,
तुम जो धन-धान्य की दृष्टि से इतने उन्नत और समृद्ध थे। अब तुम देखो कि क्या वह अब तुम्हारे पास है ? क्या तुम्हें
ऐसा नहीं जान पड़ता है कि तुम्हारी वह गौरव गाथा आज एक सपना बनकर नहीं रह गई ? हम भले ही इस देश के
वही निवासी हैं अर्थात् भले ही आज भी हम भारतवासी कहलाते हैं परन्तु हमारा पहले जैसा रूप क्या अब हमारा पहले
जैसा गौरव कहीं भी क्या दिखाई पड़ता है ?