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फादर बुल्के की स्वभावगत विशेषताओ पर प्रकाश डालिए।
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कहा जाता है कि लॉर्ड थॉमस मैकाले वह शख्स था जिसने 1835 में देसी भाषाओं की जगह अंग्रेजी को भारतीय शिक्षा का मुख्य माध्यम बना डाला. मैकाले के सुझाव पर ही अंग्रेजों ने अपनी भाषा और ज्ञान विज्ञान को भारत पर थोपा. मकसद था कि अगली कुछ पीढ़ियों में भारतीय उन जैसे बन जाएं. मैकाले का मानना था कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान अंग्रेजी और यूरोपीय सभ्यता में निहित है. वह भारतीय भाषा और ज्ञान को दोयम दर्जे का मानता था.
हालांकि मैकाले की इस सोच से भारतीय तो छोड़िए कई यूरोपीय लोग ही सहमत नहीं हुए. वहां के कई ऐसे विद्वानों ने अपनी पूरी जिंदगी यहां के ज्ञान-विज्ञान और भाषा को संवारने में लगा दी. फादर कामिल बुल्के इन्हीं विभूतियों में से एक थे.
इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि मैकाले की शिक्षा और भाषा नीति के लागू होने के ठीक 100 साल बाद कामिल बुल्के पहली बार भारत आए और यहीं के होकर रह गए. हालांकि उन्हें यहां ईसाई धर्म-प्रचार के लिए भेजा गया था. लेकिन यहां आने पर उन्हें भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी ने ऐसा मोहित किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी की सेवा में खपा दिया. बेल्जियम में एक सितंबर 1909 को पैदा हुए फादर बुल्के ने 1950 में भारत की नागरिकता ली थी. हिंदी की अप्रतिम सेवा के लिए उन्हें 1974 में देश का तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण तक से नवाजा गया.
फादर कामिल बुल्के (अंग्रेजी: Father Kamil Bulcke) (1 सितंबर 1909 – 17 अगस्त 1982) बेल्जियम से भारतआये एक मिशनरी थे। भारत आकर मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसीऔर वाल्मीकि के भक्त रहे। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट नगरपालिका (म्यूनीपीलिटी) के एक गांव रामस्केपेलमें हुआ था।[2] इनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था। अभाव और संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन बिताने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी।[3]
बुल्के ने पहले से ही ल्यूवेन विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी डिग्री हासिल कर ली थी। 1930 में ये एक जेसुइट बन गए। [4]नीदरलैंड के वलकनबर्ग, (1932-34) में अपना दार्शनिक प्रशिक्षण करने के बाद, 1934 में ये भारत की ओर निकल गए और नवंबर 1936 में भारत, बंबई(अब मुम्बई) पहुंचे। दार्जिलिंग में एक संक्षिप्त प्रवास के बाद, उन्होंने गुमला (वर्तमान झारखंड) में पांच साल तक गणितपढ़ाया। वहीं पर हिंदी, ब्रजभाषा व अवधी सीखी। 1938 में, सीतागढ़/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखा। यह यहीं था कि इन्होंने हिंदी सीखने के लिए अपना आजीवन जुनून विकसित किया, जैसा कि बाद में याद किया:
1935 में मैं जब भारत पहुंचा, मुझे यह देखकर आश्चर्य और दुःख हुआ, मैंने यह जाना कि अनेक शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से अंजान थे और इंग्लिश में बोलना गर्व की बात समझते थे। मैंने अपने कर्तव्य पर विचार किया कि मैं इन लोगों की भाषा को सिद्ध करूँगा।
—एक ईसाई का विश्वास - हिंदी और तुलसी का भक्त - कामिल बुल्के