Hindi, asked by pwanjari29, 1 year ago

Hey ....... I have to write a big essay on Prithvi ek anokha graha ....plzzz guys

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Answered by itsshreyashahi
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प्रकृति में इतना कुछ! लेकिन, सच बताइए- आपने पिछली बार कब सुनी थी किसी सदानीरा नदी की कल-कल , झरनों की झर-झर और हरे-भरे पेड़ों से आती हवा की सांय-सांय की आवाज़? कब देखी थी आपने फूलों पर मंडराती मासूम तितली, कब सुनी थी आपने फूलों पर मंडराते भौंरों की गुनगुन? कब चहकी थी आपकी मंुडेर पर गौरेया और कब अमराई में कूकी थी कोयल? उत्तर देना शायद कठिन होगा, है ना? पर, यह सब इसी पृथ्वी पर है। हमारी इसी अनोखी धरती पर।

विशाल ब्रह्मांड के खरबों सितारों और ग्रह-उपग्रहों के बीच अनंत आकाश में अपने सूर्य की परिक्रमा करती हमारी यह अनोखी पृथ्वी! सितारांे की दुनिया का एक ऐसा अकेला और अनोखा ग्रह जिसमें जीवन का दीया टिमटिमा रहा है। यह धरती मां, जिसकी कोख में करोड़ों जीव-जातियां पनप रही हैं, जो इन सभी जीव जातियों को पाल पोस रही है। उन पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर रही है। कवि तभी तो चकित होकर पूछता हैः ”यह धरती कितना देती है/ धरती माता, कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!“ (सुमित्रानंदन पंत)

कभी सोचा आपने कि कहां से आया हमारा यह अनोखा ग्रह? असंख्य सितारों के सूखे रेगिस्तान में जीवन से लहलहाता यह अकेला नखलिस्तान! इस पर कैसे पनपा जीवन?

दुनिया के दूसरे देशों के निवासियों ने भी प्राचीनकाल में पृथ्वी के बारे में कई कल्पनाएं कीं। दक्षिण अमेरिका में मय सभ्यता के लोग मानते थे कि विश्व का सृजन और विनाश होता रहता है। वे भी स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की कल्पना करते थे। वे सोचते थे, पृथ्वी एक विशाल मगरमच्छ की पीठ पर टिकी है। ईसाई और यहूदी लोग यह मानते रहे हैं कि परम पिता ने स्वर्ग और पृथ्वी की रचना की। उसने कहा ‘प्रकाश हो’ और प्रकाश पैदा हो गया। उसने आदम बनाया। फिर हौवा बनाई। उनकी संतानें पृथ्वी पर फैल गईं।

तब हमारे पुरखों को पता नहीं था कि पृथ्वी कैसे बनी। इसलिए उन्होंने अपने-अपने अनुमान लगाए। आज से लगभग पांच हजार वर्ष पहले वैदिक युग में हमारे ऋषियों को लगा कि हमारी पृथ्वी विश्व के बीच में है। वह गोल और निराधार है। लेकिन, सूरज, चांद, सितारों को घूमता हुआ देख कर उन्हें भी लगा कि वे पृथ्वी के चारों ओर घूमते हैं। ईसा से लगभग 300 वर्ष पहले यूनान के महान दार्शनिक अरस्तू ने भी कह दिया था कि सूर्य, चंद्रमा और तारे पृथ्वी का चक्कर लगाते हैं। उसने कहा कि आसमान में 55 बड़े-बड़े पारदर्शी गोले हैं। उनमें सूरज, चांद, तारे जड़े हैैं। वे घूमते हैं तो चांद-तारे भी घूमते हैं। अरस्तू को लगा, जिसने भी ब्रह्मांड बनाया उसने आकाश में घूमने वाले गोले भी बना दिए। लेकिन, बाद में यूनान के ही खगोलविज्ञानी अरिस्टार्कस ने कहा कि अरस्तू की बात गलत है। सूर्य, चंद्रमा और तारे पृथ्वी के चारों ओर नहीं बल्कि पृथ्वी, चंद्रमा और ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। मगर उसकी बात पर लोगों ने अधिक ध्यान नहीं दिया। उन्होंने सोचा, अगर पृथ्वी घूमती तो भला हमें पता नहीं लगता? वे तब यह भी नहीं जानते थे कि पृथ्वी भी अपनी धुरी पर घूमती है।

लेकिन, भारत के महान खगोलविज्ञानी आर्यभट ने पांचवीं सदी में इस रहस्य का पता लगा लिया। उसने कहा, नक्षत्र अपने स्थान पर अचल रहते हैं, पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। आर्यभट को यह भी पता लग गया था कि पृथ्वी गोल है। भारत के एक और खगोलविज्ञानी वराहमिहिर ने छठी शताब्दी में पता लगा लिया था कि जैसे चुंबक के बीच लोहे का टुकड़ा बिना किसी आधार के लटका रहता है, वैसे ही अंतरिक्ष में पृथ्वी का गोला भी निराधार है।

लेकिन, आखिर पृथ्वी बनी कैसे? आइए, अतीत में झांकते हैं, खरबों वर्ष पहले। सुदूर अंतरिक्ष में गैसों के एक विशाल बादल का जन्म हुआ। लगभग 4.5 अरब वर्ष पहले किसी विशाल तारे के विस्फोट ने उसमें भारी हलचल मचा दी और वह तेजी से घूमने लगा। घूमते-घूमते वह बादल विशाल गोला बन गया। उसके भीतर गुरुत्वाकर्षण से अकूत दबाव पैदा हो गया जिसके कारण गोले के गर्भ का तापमान लाखों डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। वह धधक उठा, धधक कर जैसे परमाणु भट्टी बन गया।

आग का वह धधकता गोला हमारा तारा यानी हमारा सूर्य बन गया। उसके चारों ओर का पदार्थ चट्टानों में बदल गया। उन चट्टानों और धूल के कणों से ग्रहों के गोले बन गए और सूरज के परिवार यानी सौरमंडल में शामिल हो गए- पथरीले ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल। बृहस्पति, यूरेनस, नेपच्यून विशाल गैसों के गोले ही रह गए। सौरमंडल के सीमांत पर प्लूटो और कुछ अन्य ठोस बौने ग्रह बन गए।

लेकिन, जीवन का वरदान मिला सूरज के परिवार के इस तीसरे ग्रह यानी हमारी पृथ्वी को। सौरमंडल के बाकी ग्रहों में तो न कोई तितली उड़ती है, न कोयल कूकती है।

सूर्य से सही दूरी पर घूम रही तपती आदि पृथ्वी धीरे-धीरे ठंडी हुई। सुदूर, ठंडे, अंधेरे अंतरिक्ष से आने वाले उल्का पिंड और धूमकेतु धरती पर बर्फ लाए। पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल की परत बन गई। तब उसमें नाइट्रोजन ही ज्यादा थी। आज की तरह आॅक्सीजन नहीं थी। फिर उल्काओं, धूमकेतुओं के साथ आई बर्फ पिघली। ऊबड़-खाबड़ धरती में सागर और झीलें बन गईं। सूरज की गर्मी से धरती का पानी भाप बन कर उड़ता। आसमान में पहंुचता। बादल बनते। गरजते-बरसते बादल धरती पर वर्षा की झड़ी लगा देते। धरती ने पानी सोखा। नदी-नाले बन गए। नदियां पानी लेकर सागरों में समाईं। पृथ्वी की छिलके जैसी मोटी परत टूट कर सात विशाल महाद्वीपों में बदल गई। पांच महासागर बन गए।

कितनी अनोखी है हमारी प्यारी पृथ्वी? सूर्य से यह लगभग 14 करोड़ 86 लाख किलोमीटर दूर है। इसकेे गोले का व्यास करीब 12,756 किलोमीटर है। अपनी धुरी पर यह थोड़ा तिरछी खड़ी है जिसके कारण इस पर ऋतुएं होती हैं। आज भी बाहर से ऊबड़-खाबड़ और कठोर दिखाई देने वाली हमारी पृथ्वी भीतर से बहुत गर्म और गुंधे आटे की तरह पिलपिली है। बाहर से कड़ी परत है, उसके नीचे मोटी, पिलपिली मेंटल परत, उसके भीतर कोर या क्रोड़। पृथ्वी के गोले के बिलकुल भीतर गुठली की तरह धातुओं की कठोर परत। कोर या क्रोड़ का तापमान 5,000 से 7,000 डिग्री सेल्सियस तक आंका गया है।

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