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शिक्षा का गिरता स्तर पर निबँध
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शिक्षा एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म से मृत्यु तक इस प्रक्रिया से गुजरता हुआ कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है। अगर हम शिक्षा की तमाम परिभाषाओं को एक साथ रख दें और फिर कोई शिक्षा का अर्थ ढूंढे़ तो भी हमें कोई ऐसा अर्थ नहीं मिलेगा, जो अपने आप में पूर्ण हो। वर्तमान में शिक्षा का अर्थ केवल स्कूली शिक्षा से लिया जाता है।
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शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार को लेकर जो घमासान मचा है, उस परिप्रेक्ष्य में गाँधी, नेहरू और के. टी. शाह के बीच हुई बहस का एक संस्मरण लिखना जरूरी है।
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स्वतंत्रता के पूर्व जब जवाहर लाल नेहरू देश की भावी शिक्षा नीति का मसौदा तैयार कर रहे थे, तो गाँधीजी ने के. टी. शाह से पूछा कि आप भावी भारत की शिक्षा कैसी चाहते है? इस पर शाह ने उत्तर दिया कि हम ऐसी शिक्षा चाहते है जिसमें किसी कक्षा में अगर मैं यह सवाल करूँ कि मैंने चार आने के दो सेब खरीदे और उन्हें एक रुपये में बेच दूँ तो मुझे क्या मिलेगा? तो सारी कक्षा एक स्वर में जवाब दे आपको जेल मिलेगी, दो वर्ष का कठोर कारावास मिलेगा। यह उदाहरण हमें यह बताता है कि हमने स्वतंत्रता के पूर्व शिक्षा की किस नैतिकता की अपेक्षा की थी?
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किंतु आज शिक्षा शब्द ने अपने अंदर का अर्थ इस कदर खो दिया है कि आज न उसके अंदर का संस्कार जिंदा है और न व्यवहार। शिक्षा अपने समूचे स्वरूप में अराजकता, अव्यवस्था, अनैतिकता और कल्पनाहीनता का पर्याय बन गई है। शिक्षा के जरिये अब न आचरण आ रहा न चरित्र, न मानवीय मूल्य, न नागरिक संस्कार, न राष्ट्रीय दायित्व एवं कर्तव्य बोध और न ही अधिकारों के प्रति चेतना। आज प्रत्येक वर्ग में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर चिंता जताई जा रही है। शिक्षा के गिरते स्तर पर लंबी-लंबी बहसे होती है। और अंत में उसके लिए शिक्षक को दोषी करार दिया जाता है। जो शिक्षक स्वयं उस शिक्षा का उत्पादन है और जहाँ तक संभव हो रहा है मूल्यों, आदर्शों व सामाजिक उत्तर दायित्व के बोध को छात्रों में बनाये रखने का प्रयत्न कर रहा है, तमाम राजनीतिक दबावों के बावजूद। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ-साथ जनगणना, आर्थिक गणना, बालगणना, पशुगणना, पल्स पोलियो से लेकर मतदाता सूची तैयार करना, मतगणना करना और चुनाव ड्यूटी तक तमाम राष्ट्रीय कार्यक्रमों को पूरी कुशलता से करने वाला शिक्षक इतना अकर्मण्य और अयोग्य कैसे हो सकता है? हालांकि काफी हद तक यह बात सही है कि स्कूलों में कुछ शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं। स्कूल वक्त पर पहुँचते नहीं हैं। शिक्षक वैसा शिक्षण नहीं करते जो गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की श्रेणी में आता है। आये दिन किसी मुद्दे को लेकर हड़ताल पर चले जाना और स्कूलों की छुट्टी हो जाना आम हो गया है। शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय जाते हैं, लेकिन वहां शिक्षक ही नदारद रहते हैं। ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न लगना लाजिमी है।
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लेकिन यह बात भी सही है कि बहुत से शिक्षक हैं, जो ईमानदारी से पढ़ा रहे हैं। उनके बच्चों में शैक्षिक गुणवत्ता की दक्षताएं हैं। फिर सभी शिक्षकों दोषी कैसे ठहराया जा सकता है।
उद्देश्यों और मूल्यों का सवाल आते ही कई लोग आदर्शवाद की धारा में बह जाते हैं। वे उन भौतिक परिस्थितियों को भूल जाते हैं जिनसे उद्देश्यों पर अमल किया जाना है, जिनमें मूल्यों को जीवन में उतारा जाना है। शिक्षा के गिरते स्तर के लिए शिक्षक दोषी हैं या यह शिक्षा व्यवस्था और उसको अपने हित में नियंत्रित-निर्मित करने वाली आर्थिक राजनीतिक शक्तियाँ? गिरते स्तर के लिए उत्तरदायित्व निर्धारण हेतु शिक्षा से जुड़े घटकों यथा समाज, प्रशासन, शिक्षक पाठ्यक्रम स्वयं छात्र इत्यादि पर एक दृष्टि डालना उचित होगा।
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शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार को लेकर जो घमासान मचा है, उस परिप्रेक्ष्य में गाँधी, नेहरू और के. टी. शाह के बीच हुई बहस का एक संस्मरण लिखना जरूरी है।
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स्वतंत्रता के पूर्व जब जवाहर लाल नेहरू देश की भावी शिक्षा नीति का मसौदा तैयार कर रहे थे, तो गाँधीजी ने के. टी. शाह से पूछा कि आप भावी भारत की शिक्षा कैसी चाहते है? इस पर शाह ने उत्तर दिया कि हम ऐसी शिक्षा चाहते है जिसमें किसी कक्षा में अगर मैं यह सवाल करूँ कि मैंने चार आने के दो सेब खरीदे और उन्हें एक रुपये में बेच दूँ तो मुझे क्या मिलेगा? तो सारी कक्षा एक स्वर में जवाब दे आपको जेल मिलेगी, दो वर्ष का कठोर कारावास मिलेगा। यह उदाहरण हमें यह बताता है कि हमने स्वतंत्रता के पूर्व शिक्षा की किस नैतिकता की अपेक्षा की थी?
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किंतु आज शिक्षा शब्द ने अपने अंदर का अर्थ इस कदर खो दिया है कि आज न उसके अंदर का संस्कार जिंदा है और न व्यवहार। शिक्षा अपने समूचे स्वरूप में अराजकता, अव्यवस्था, अनैतिकता और कल्पनाहीनता का पर्याय बन गई है। शिक्षा के जरिये अब न आचरण आ रहा न चरित्र, न मानवीय मूल्य, न नागरिक संस्कार, न राष्ट्रीय दायित्व एवं कर्तव्य बोध और न ही अधिकारों के प्रति चेतना। आज प्रत्येक वर्ग में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर चिंता जताई जा रही है। शिक्षा के गिरते स्तर पर लंबी-लंबी बहसे होती है। और अंत में उसके लिए शिक्षक को दोषी करार दिया जाता है। जो शिक्षक स्वयं उस शिक्षा का उत्पादन है और जहाँ तक संभव हो रहा है मूल्यों, आदर्शों व सामाजिक उत्तर दायित्व के बोध को छात्रों में बनाये रखने का प्रयत्न कर रहा है, तमाम राजनीतिक दबावों के बावजूद। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ-साथ जनगणना, आर्थिक गणना, बालगणना, पशुगणना, पल्स पोलियो से लेकर मतदाता सूची तैयार करना, मतगणना करना और चुनाव ड्यूटी तक तमाम राष्ट्रीय कार्यक्रमों को पूरी कुशलता से करने वाला शिक्षक इतना अकर्मण्य और अयोग्य कैसे हो सकता है? हालांकि काफी हद तक यह बात सही है कि स्कूलों में कुछ शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं। स्कूल वक्त पर पहुँचते नहीं हैं। शिक्षक वैसा शिक्षण नहीं करते जो गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की श्रेणी में आता है। आये दिन किसी मुद्दे को लेकर हड़ताल पर चले जाना और स्कूलों की छुट्टी हो जाना आम हो गया है। शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय जाते हैं, लेकिन वहां शिक्षक ही नदारद रहते हैं। ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न लगना लाजिमी है।
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लेकिन यह बात भी सही है कि बहुत से शिक्षक हैं, जो ईमानदारी से पढ़ा रहे हैं। उनके बच्चों में शैक्षिक गुणवत्ता की दक्षताएं हैं। फिर सभी शिक्षकों दोषी कैसे ठहराया जा सकता है।
उद्देश्यों और मूल्यों का सवाल आते ही कई लोग आदर्शवाद की धारा में बह जाते हैं। वे उन भौतिक परिस्थितियों को भूल जाते हैं जिनसे उद्देश्यों पर अमल किया जाना है, जिनमें मूल्यों को जीवन में उतारा जाना है। शिक्षा के गिरते स्तर के लिए शिक्षक दोषी हैं या यह शिक्षा व्यवस्था और उसको अपने हित में नियंत्रित-निर्मित करने वाली आर्थिक राजनीतिक शक्तियाँ? गिरते स्तर के लिए उत्तरदायित्व निर्धारण हेतु शिक्षा से जुड़े घटकों यथा समाज, प्रशासन, शिक्षक पाठ्यक्रम स्वयं छात्र इत्यादि पर एक दृष्टि डालना उचित होगा।
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किसी देश का भविष्य वहां के बच्चों को मिलने वाली प्राथमिक शिक्षा पर निर्भर करता है। प्रारम्भिक शिक्षा जिस प्रकार की होगी देश का भविष्य भी उसी प्रकार निर्धारित होगा। 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति आजादी के बाद इतिहास में एक अहम कदम थी। उसका उद्देश्य राष्ट्र की प्रगति को बढ़ाना तथा सामान्य नागरिकता व संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ करना था। 1968 की नीति लागू होने के बाद देश में शिक्षा का व्यापक प्रसार भी हुआ।
परन्तु अब हालात कुछ और ही हैं। समय-समय पर प्रकाशित आकड़ो के अनुसार शिक्षा के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। शिक्षा का अधिकार फोरम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में 98,443 सरकारी प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक की बदौलत चल रहे हैं। अर्थात देश के करीब 11.46 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में कक्षा एक से पांचवीं तक छात्रों की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ एक शिक्षक पर ही निर्भर है। अब इन आंकड़ों से जाहिर है कि ये शिक्षक विद्यालयों में अलग-अलग कक्षा के छात्रों को शिक्षा देने के नाम पर खाना पूर्ति करते होंगे। जिस भी दिन शिक्षक की अनुपस्थिति होती होगी उस दिन वह विद्यालय बंद होता होगा। देश में इस समय लगभग 13.62 लाख प्राथमिक विद्यालय हैं। परंतु इसमें 41 लाख शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं और जो शिक्षक हैं उनमें से लगभग 8.6 लाख शिक्षक अप्रशिक्षित हैं। एनुअल स्टेट्स ऑफ़ एजुकेशन (असर) 2014 के अनुसार भी भारत में निजी स्कूलों में जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 51.7 फीसदी हो गया है। 2010 में यह दर 39.3 फीसदी थी। रिपोर्ट के अनुसार भारत में कक्षा आठवीं के 25 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ भी नही पढ़ सकते हैं। राजस्थान में यह आंकड़ा 80 फीसदी और मध्य प्रदेश में 65 फीसदी है। इसी तरह देश में कक्षा पांच के 48.1 फीसदी छात्र ही कक्षा दो की किताबें पढ़ने में सक्षम हैं। अंग्रेजी की बात करें तो आठवीं कक्षा के सिर्फ 46 फीसदी छात्र ही अंग्रेजी की साधारण किताब को पढ़ सकते हैं। राजस्थान में तो आठवीं तक के करीब 77 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जो अंग्रेजी का एक भी हर्फ़ नहीं पहचान पाते हैं। वहीं मध्य प्रदेश में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत है।
हालाँकि यूनेस्को द्वारा दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति का जायजा लेने वाली जारी की गई सालाना रिपोर्ट में भारत में बुनियादी शिक्षा ढाचें की शिक्षा का अधिकार कानून और सर्व शिक्षा अभियान के नतीजों को सकारात्मक बताते हुए कहा है कि भारत दुनिया में बच्चों को स्कूली शिक्षा के लिए प्रेरित करने और स्कूल भेजने में सबसे तेज गति से प्रगति कर रहा है। रिपोर्ट के अनुसार जहाँ भारत में स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या साल 2000 में 2 करोड़ थी तो वहीं 2006 में ये संख्या घटकर 23 लाख और 2011 के रिपोर्ट में यह संख्या 17 लाख रह गयी है। इस उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद भी भारतीय प्राथमिक शिक्षा और स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या के आधार पर तैयार की गई सूची में नीचे से चौथे पायदान पर है।
दुर्भाग्य इस बात का है कि प्रत्येक एक किलोमीटर के फासले पर प्राथमिक विद्यालयों के होते हुए भी उचित सुविधाएँ न होने की वजह से शिक्षा में घोर गिरावट आयी है। सरकारें बदली, मंत्रिमंडल बदला, काम-काज बदला परन्तु आंकड़ें आज भी हैरान करने योग्य बने हुए हैं। देश के 31 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है। मानव संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार अभी तक 69 फीसदी विद्यालयों में ही शौचालय की व्यवस्था है। देश में 80 प्रतिशत ग्रामीण वातावरण को देखते हुए इस समस्या के कारण अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से रोकते हैं। जिससे लड़कियों की पढ़ाई में बाधा आती है और वे प्राथमिक शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। ऐसी स्थिति 2009 के शिक्षा अधिकार कानून के बाद भी बनी हुई है।
इसका दोषी कौन है? कई सवाल खड़े हैं कि क्या हम प्राथमिक शिक्षा की हालत को बेहतर बना पाएंगे? क्या जो शिक्षा मिल रही है वह गुणवत्ता पूर्ण है? क्या सरकारी नीतियां शिक्षा की गिरती साख को सुधार पाएंगी? सवाल कई हैं। ये सारे प्रश्न शिक्षा व्यवस्था के प्रति प्राप्त उन तमाम नकारात्मक आंकड़ों के बाद उठना वांछित है।
प्राथमिक शिक्षा के गिरते स्तर के हालात के लिए कुछ हद तक हमारा समाज भी जिम्मेदार है। आज समाज में कुछ अभिभावक मौजूदा दौर को देखते हुए बच्चों को तो अंग्रेजी माध्यम या फिर मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन ठीक इसके उलट अभिभावक स्वयं के आर्थिक हालात को देखते हुए बच्चों को प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाते हैं। यह देश का के लिए शर्म की बात है कि शिक्षा के बाजारीकरण ने राजनीति की तरह ही शिक्षा को भी दो धड़ो में बाँट दिया है। एक वो जो अंग्रेजी के ताने बाने से निकलकर प्राइवेट स्कूलों के भारी-भरकम बस्तों पर ख़त्म होती है तो दूसरी शिक्षकों और तंत्र के नीतियों के दबाव में समाज के सामने कराह रही होती है। यह गांव के प्राथमिक स्कूलों की शिक्षा बदलती पूंजीवादी दुनिया में प्राइवेट स्कूलों के सामने कहीं नहीं टिकती। बच्चों के दो वक्त की रोटी की व्यवस्था में लगे अभिभावक प्राथमिक विद्यालयों, सरकार और सरकारी नीतियों के बीच पिसते जा रहे हैं।
प्राथमिक विद्यालयों में सरकार ने मध्यान्ह भोजन योजना शुरू की। जिससे बच्चों को पोषक तत्व युक्त भोजन मिल सके। अभिभावक भी एक समय के भोजन के लालच में बच्चों को स्कूल भेजने लगे। उनका भी अपना वात्सल्य स्वार्थ था कि बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से विकसित हो सकें। पर हकीकत में इस योजना का नुकसान ज्यादा हो रहा है वनस्पत फायदे के। मध्यान्ह भोजन योजना से पहले सरकार ने अपनी नीति में यह लागू किया था कि स्कूलों में छात्रों को 3 किलो अनाज (चावल या गेहूँ) प्रति छात्र के हिसाब से दिया जायेगा और यह कार्य सुदृढ़ता से चल भी रहा था परंतु मध्यान्ह भोजन योजना के सरकारी स्कीम ने सरकारी शिक्षा तंत्र पर और भी प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं।
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परन्तु अब हालात कुछ और ही हैं। समय-समय पर प्रकाशित आकड़ो के अनुसार शिक्षा के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। शिक्षा का अधिकार फोरम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में 98,443 सरकारी प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक की बदौलत चल रहे हैं। अर्थात देश के करीब 11.46 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में कक्षा एक से पांचवीं तक छात्रों की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ एक शिक्षक पर ही निर्भर है। अब इन आंकड़ों से जाहिर है कि ये शिक्षक विद्यालयों में अलग-अलग कक्षा के छात्रों को शिक्षा देने के नाम पर खाना पूर्ति करते होंगे। जिस भी दिन शिक्षक की अनुपस्थिति होती होगी उस दिन वह विद्यालय बंद होता होगा। देश में इस समय लगभग 13.62 लाख प्राथमिक विद्यालय हैं। परंतु इसमें 41 लाख शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं और जो शिक्षक हैं उनमें से लगभग 8.6 लाख शिक्षक अप्रशिक्षित हैं। एनुअल स्टेट्स ऑफ़ एजुकेशन (असर) 2014 के अनुसार भी भारत में निजी स्कूलों में जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 51.7 फीसदी हो गया है। 2010 में यह दर 39.3 फीसदी थी। रिपोर्ट के अनुसार भारत में कक्षा आठवीं के 25 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ भी नही पढ़ सकते हैं। राजस्थान में यह आंकड़ा 80 फीसदी और मध्य प्रदेश में 65 फीसदी है। इसी तरह देश में कक्षा पांच के 48.1 फीसदी छात्र ही कक्षा दो की किताबें पढ़ने में सक्षम हैं। अंग्रेजी की बात करें तो आठवीं कक्षा के सिर्फ 46 फीसदी छात्र ही अंग्रेजी की साधारण किताब को पढ़ सकते हैं। राजस्थान में तो आठवीं तक के करीब 77 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जो अंग्रेजी का एक भी हर्फ़ नहीं पहचान पाते हैं। वहीं मध्य प्रदेश में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत है।
हालाँकि यूनेस्को द्वारा दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति का जायजा लेने वाली जारी की गई सालाना रिपोर्ट में भारत में बुनियादी शिक्षा ढाचें की शिक्षा का अधिकार कानून और सर्व शिक्षा अभियान के नतीजों को सकारात्मक बताते हुए कहा है कि भारत दुनिया में बच्चों को स्कूली शिक्षा के लिए प्रेरित करने और स्कूल भेजने में सबसे तेज गति से प्रगति कर रहा है। रिपोर्ट के अनुसार जहाँ भारत में स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या साल 2000 में 2 करोड़ थी तो वहीं 2006 में ये संख्या घटकर 23 लाख और 2011 के रिपोर्ट में यह संख्या 17 लाख रह गयी है। इस उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद भी भारतीय प्राथमिक शिक्षा और स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या के आधार पर तैयार की गई सूची में नीचे से चौथे पायदान पर है।
दुर्भाग्य इस बात का है कि प्रत्येक एक किलोमीटर के फासले पर प्राथमिक विद्यालयों के होते हुए भी उचित सुविधाएँ न होने की वजह से शिक्षा में घोर गिरावट आयी है। सरकारें बदली, मंत्रिमंडल बदला, काम-काज बदला परन्तु आंकड़ें आज भी हैरान करने योग्य बने हुए हैं। देश के 31 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं है। मानव संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार अभी तक 69 फीसदी विद्यालयों में ही शौचालय की व्यवस्था है। देश में 80 प्रतिशत ग्रामीण वातावरण को देखते हुए इस समस्या के कारण अभिभावक लड़कियों को स्कूल जाने से रोकते हैं। जिससे लड़कियों की पढ़ाई में बाधा आती है और वे प्राथमिक शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। ऐसी स्थिति 2009 के शिक्षा अधिकार कानून के बाद भी बनी हुई है।
इसका दोषी कौन है? कई सवाल खड़े हैं कि क्या हम प्राथमिक शिक्षा की हालत को बेहतर बना पाएंगे? क्या जो शिक्षा मिल रही है वह गुणवत्ता पूर्ण है? क्या सरकारी नीतियां शिक्षा की गिरती साख को सुधार पाएंगी? सवाल कई हैं। ये सारे प्रश्न शिक्षा व्यवस्था के प्रति प्राप्त उन तमाम नकारात्मक आंकड़ों के बाद उठना वांछित है।
प्राथमिक शिक्षा के गिरते स्तर के हालात के लिए कुछ हद तक हमारा समाज भी जिम्मेदार है। आज समाज में कुछ अभिभावक मौजूदा दौर को देखते हुए बच्चों को तो अंग्रेजी माध्यम या फिर मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन ठीक इसके उलट अभिभावक स्वयं के आर्थिक हालात को देखते हुए बच्चों को प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाते हैं। यह देश का के लिए शर्म की बात है कि शिक्षा के बाजारीकरण ने राजनीति की तरह ही शिक्षा को भी दो धड़ो में बाँट दिया है। एक वो जो अंग्रेजी के ताने बाने से निकलकर प्राइवेट स्कूलों के भारी-भरकम बस्तों पर ख़त्म होती है तो दूसरी शिक्षकों और तंत्र के नीतियों के दबाव में समाज के सामने कराह रही होती है। यह गांव के प्राथमिक स्कूलों की शिक्षा बदलती पूंजीवादी दुनिया में प्राइवेट स्कूलों के सामने कहीं नहीं टिकती। बच्चों के दो वक्त की रोटी की व्यवस्था में लगे अभिभावक प्राथमिक विद्यालयों, सरकार और सरकारी नीतियों के बीच पिसते जा रहे हैं।
प्राथमिक विद्यालयों में सरकार ने मध्यान्ह भोजन योजना शुरू की। जिससे बच्चों को पोषक तत्व युक्त भोजन मिल सके। अभिभावक भी एक समय के भोजन के लालच में बच्चों को स्कूल भेजने लगे। उनका भी अपना वात्सल्य स्वार्थ था कि बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से विकसित हो सकें। पर हकीकत में इस योजना का नुकसान ज्यादा हो रहा है वनस्पत फायदे के। मध्यान्ह भोजन योजना से पहले सरकार ने अपनी नीति में यह लागू किया था कि स्कूलों में छात्रों को 3 किलो अनाज (चावल या गेहूँ) प्रति छात्र के हिसाब से दिया जायेगा और यह कार्य सुदृढ़ता से चल भी रहा था परंतु मध्यान्ह भोजन योजना के सरकारी स्कीम ने सरकारी शिक्षा तंत्र पर और भी प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं।
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