Hindi, asked by dfghhiiyrtu96, 10 months ago

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cbse class 10th
अनुच्छेद 2) आधुनिक

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Answered by amanrohilla
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Explanation:

आधुनिक काल में नारी सामाजिक व्यवस्था में स्थान रखती है। पुरूषों की भाँति ही वह उच्च शिक्षा ग्रहण करती है, सभी प्रकार के प्रशिक्षण या टेªनिंग लेती है और घर की सीमाओं से बाहर निकलकर स्कूल, काॅलेजों कार्यालयों, अस्पतालों आदि में अपनी कार्यक्षमतानुसार स्थान प्राप्त करती हैं। राजनीति, वैज्ञानिक संस्थान, पर्वतारोहण, क्रीड़़ा जगत्, पुलिस, सेना आदि कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ नारी का प्रवेश न होता हो। शिक्षा प्राप्ति और नौकरी से और कोई लाभ हुआ हो या न हुआ हो, एक लाभ यह अवश्य हुआ है कि वह पुरूष की निरंकुशता से मुक्ति प्राप्त करती है। आर्थिक स्वावलंबन ने उसके आत्मविश्वास में वृद्धि की है और वह किसी भी समस्या से जूझने को तत्पर है। जिन लोगों को स्त्री की कार्यक्षमता में अविश्वास था, वे भी अब उसकी योग्यता के कायल होने लगे हैं। यही कारण है कि नौकरी-पेशा पुरूष और स्त्रियों के वेतनमानों में कहीं कोई अंतर नहीं दिखाई देता। बल्कि कुछ व्यवसायों में तो स्त्रियाँ जितनी कुशलता से कार्य कर सकती हैं, उतनी कुशलता से पुरूष उस काम को नहीं कर पाते। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज नारी की स्थिति गत शताब्दी की नारियों की अपेक्षा उन्नत हुई है।

लेकिन यह स्थिति का एक पक्ष है, जो देखने में बहुत स्वर्णिम लगता है। आधुनिक भारतीय नारी आज अधिक आत्म-विश्वासी, अधिक स्वतंत्र और साहसी दिखाई देती है। यह ठीक है लेकिन वास्तविकता यह है कि वह दिग्भ्रमित हो गई है। स्नेहमयी, दयामयी, ममतामयी नारी आज लुप्त होती जा रही है और मानवता के इन सभी गुणों का स्थान ले रही है एक प्रकार की यांत्रिकता, रूखापन, अधिकाधिक भौतिक सुख-सुविधाओं में जीने की हवस और आधुनिकता के नाम पर अधिक-से-अधिक प्रदर्शन की प्रवृत्ति। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत हर लड़की का स्वप्न नौकरी करने का होता है। वह विवाह करती है परंतु पारिवारिक मान्यताएँ महत्त्वहीन होती जा रही हैं।

आधुनिक नारी बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए सैकड़ों-हजारांे रूपये व्यय करने के लिए तैयार हैं परंतु नौकरी के सहारे बड़े हो रहे बच्चे के लिए उसके पास समय का आभाव है। क्लबांे-पार्टियों और होटलों की संस्कृति का विकास तेजी से हो रहा है। माता-पिता के उचित संरक्षण का अभाव आगामी पीढ़ी को कुंठाग्रस्त बना देता है। प्रदर्शन की इस प्रवृत्ति ने नारी को सहज मानवीय गुणों से वंचित कर दिया है, व्यक्तित्व का विकास अथवा आर्थिक समस्या जैसी चीज उसके जीवन में नहीं है। इस सिक्के का एक पहलू और भी है भारत में अधिकांश नौकरी-पेशा महिलाएँ वे हैं जो पारिवारिक समस्याओं के समाधान के लिए घर से बाहर निकलती हैं। महानगरीय सभ्यता की आपाधापी में जीवन-स्तर उन्नत करने, बच्चों की शिक्षा और उनके उन्नत भविष्य की चिंता उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए विवश कर देती हैं। इस प्रकार की स्त्रियों को एक साथ दो मोर्चों का सामना करना पड़ता है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा कि घर की संपूर्ण व्यवस्था करना स्त्री का काम है- उसके मस्तिष्क पर एक बोझ बनाये रखती है। जिस कार्य के लिए वह वेतन लेती है, उस कार्य को अन्य सहकर्मियों के समान कुशलतापूर्वक करना भी उसका दायित्व है, अतः दोहरी चक्की में पिसना उसकी नियति बन गयी है। कार्य पर जाने से पूर्व वह घर के आवश्यक कार्य करती है, दिन भर नौकरी और वापिस आने पर फिर वही पारिवारिक समस्याएँ। जीवन उसके लिए जैसे एक मशीन बनकर रह जाता है। इस स्थिति के लिए हमारी सामाजिक मान्यातायें ही उत्तरदायी हैं। पुरूष प्रधान समाज होने में आधिपत्य प्रायः पुरूष का ही होता है। वह स्त्री से यह अपेक्षा करता है कि घर का प्रबंध भी सुचारू रूप से होता रहे, पत्नी की नौकरी से धन भी आता रहे तथा उसे और बच्चों को कोई कष्ट भी न उठाना पड़े। हम लोग ऊपर से चाहे कितने आधुनिक बनें, हमारे संस्कार और मस्तिष्क की संरचना में कहीं कोई बदलाव नहीं आ पाया है। सभी प्रकार से शिक्षित और सभ्य दिखाई देने वाला समाज अभी भी नारी की शारीरिक, आर्थिक विवशताओं और उसकी अतिशय भावुकता का लाभ उठाये बिना नहीं चूकता। नारी की भूमिका निरंतर बदलती जा रही है। यह बदलाव समय के अनुरूप आ रहा है

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Answered by muhammadrizwanbuhari
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