Hindi anuched agar mein lekhani hoti
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आरम्भ:- कलम की कहानी किसी से कहलवा कर या लिखवा कर कलम की जबान से ही सुनि जाए या उससे ही लिखवाई जाय, तो यह सर्वाधिक रोचक, सरस् ओर अदभुत कहानी हो सकती है। अतएव अब हम चुपचाप कलम की कहानी उसकी जबानी से सुनना बेहतर समझ रहे है। लीजिए, ध्यान से सुनिए और अपने साथियों को भी सुनाइये।
आधी रात का समय है। मैं अपना अधूरा उपन्यास पूरा करने के लिए धड़ाधड़ कलम चला रही हूँ। लिखने में इतना मशगूल हो गई हूँ कि कलम को कभी इधर घुमाकर तो कभी उधर। कभी तिरछी करके तो कभी सीधी-आड़ी या पट करके लिख रही हूँ। बस लिखते जाना है। कलम की दशा क्या हो रही है और होनी चाहिए, मुझे इसका कतई ध्यान नहीँ आ रहा है। बस ध्यान था कि अधिक से अधिक रुप में उपन्यास पूरा हो जाये। अचानक धीमी किंतु मधुर ध्वनि कानों में गूंज गयी। इसे सुनकर में चौक गई। उधर-इधर देखा, कहि कोई नही था। चारो ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल झींगुरों की झनझनाहट और झनकार ही चारो ओर फैल रही थी। इसके अतिरिक्त कहि कुछ न सुनाई पड़ता और न कोई दिखाई ही देता था। फिर मैंने ध्यान नही दिया और लिखने में मशगूल हो गयी । फिर वही आवाज़ आयी। ध्यान देने पर मुझे सुनाई पड़ा कि मेरे हाथ की कलम ही मुझ से कुछ कहने के लिए मचल रही है। उसको इस प्रकार देखकर में एकदम चकित हो गयी। लेकिन कलम ने मेरी इस दशा पर कोई ध्यान नही दिया। वह मचलती हुई मुझ से कहने लगी। मेरे द्वारा ही तुम न जाने क्या-क्या और किस की बाते और कहानी सुनाते रहते हो। क्या तुम मेरी कहानी नहीं सुनोगे। इससे में ओर चकित हो गई। मैने आश्चर्यपूर्वक कलम से कहा,“क्या तुम्हारी भी कोई कहानी है? तुम तो विभिन्न्न धातु-पदार्थो से बनी हुई किसी की भावना को व्यक्त करने वाली कलम के नाम से जानी जाती हो। फिर तुम्हारी क्या कहानी है और हो भी क्या सकती है?” यह सुनते ही कलम ने फिर अपनी बात कहनी शुरू कर दी “क्यों? मेरी कहानी क्यों नहीँ हो सकती है। जब मैं दुसरो की कहानी कहती हूं, तो मेरी कहानी क्यों नही हो सकती है?” मैने कहा, फिर तुम्ही बताओं, तुम्हारी क्या कहानी है ? मैं सचमुच तुम्हारी कहानी, तुम्हारी जबानी सुनना चाहती हुँ। “कलम ने मेरी अभिरुचि को देखकर कहा – ‘तुम मेरी कहानी सुनना चाहती हो, तो लो ध्यान से सुनो’।
कलम के विभिन्न रूप:- ” मेरी कहानी मानव की आदि सभ्यता के साथ ही आरम्भ हुई है। इस तरह मानव का ज्ञान जैसे-जैसे आगे बढ़ने लगा, वैसे-वैसे उसने अपनी भावनाओं को अंकित करने के लिए कुछ चिन्ह अपनाने शुरूकर दिए। इन्हें लिपि नाम कुछ समय बाद दिया गया। यहीं से मेरी कहानी शुरू हो गयी। इस तरह मैने पाषाण -युग में पत्थरों पर बड़ी कठिनाई से मानव की भावनाएं अंकित करने के लिए अपनी पूरी हिम्मत जुटायी थी। इसके बाद पक्षियो के पंख ही मुझे साधन के रूप में मिले थे। पक्षियों के पंख से ही मैं अपने नाम अर्थात लेखनी (कलम) को उस युग मे सार्थक करने में जुट गई थी। इसमें भी एक कठिनाई यह थी कि स्याही मैं कम ले पाती थी। इसका मुख्य कारण यही था कि मेरा मुँह बहुत ही संकरा ओर पतला हुआ करता था। मैं देर तक इसीलिए नहीं चल पाती थी। सरकते-सरकते मेरे होंठ सुख जाते थे। मुंझे फिर से शीघ्र की स्याही को मुंह मे भरना पड़ता था। जो कुछ भी हो, मैं इस बात के लिए सौभाग्यवती रही कि मुंझे ऋषियों-मुनियों ने सादर अपनाया था। मैं तब तक एक अति पवित्र ऋषि कन्या की तरह तपस्वी बनी हुई थी। इस समय ही मैने सभी वेद-पुराण आदि ग्रन्थो को लिखे, जो अब तक पूज्य-प्रतिष्ठित है।