Hindi, asked by someone8269, 11 months ago

hindi debate on "vikas vinash ka ek naam hai"​

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Answered by sonikadhamwani
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आज आदमी विकास की चरम अवस्था पार कर चुका है। अगर हम अभी नहीं चेते तो इस विकास की कीमत सृष्टि के विनाश से चुकानी होगी। धरती का पर्यावरण नष्ट हो जाएगा। धरती पर मंडराते इसी संकट पर इस लेख में प्रकाश डाला गया है।अब यह बात सत्य है कि केवल किसी विशेष देश की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था जिस नाजुक धुरी पर टिकी है उसका नाम है पर्यावरण। यही वजह है कि पिछले कुछ समय से दुनिया भर में लोगों में पर्यावरण के प्रति एक नई चेतना जगी है। आम आदमी भी पर्यावरण की जानकारी पाने के लिये उत्सुक है। कहीं-कहीं उस उत्सुकता ने चिन्ता का रूप ले लिया है और कहीं पर आंदोलन का।

आज पर्यावरण की समस्याएं एक साथ कई राष्ट्रों से जुड़ गई हैं। अब तेजाबी वर्षा की सबसे विशेष बात यह है कि गलती कोई और करता है व भुगतता कोई और है। एक जगह की चिमनी धुआँ उगलती है और दूसरी जगह के लोग तेजाब की बरसात झेलते हैं। कई यूरोपीय देश (नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क आदि) ब्रिटेन और फ्रांस पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उनके कल-कारखानों से निकलने वाले तेल और कोयले के धुएँ को हवाएँ उनके यहाँ से उड़ाकर लाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण दूषित होता है और तेजाबी वर्षा होती है। समस्या की गम्भीरता को देखते हुए पिछले कुछ वर्षों से तेजाबी वर्षा के दुष्प्रभावों का विस्तार पूर्वक अध्ययन करने के प्रयास प्रारम्भ किए गए हैं। ब्रिटेन के अन्य वैज्ञानिकों के अलावा वहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने इस विषय पर अनुसंधान आरम्भ किया है।

इन वैज्ञानिकों ने पिछले 10-15 वर्षों की जटिलताओं को काफी हद तक सरल भी बनाया है। अब यह बात तो स्पष्ट हो गई है कि सल्फर डाई ऑक्साइड और नाइट्रोजन के ऑक्साइड कल-कारखानों, बिजली घरों और मोटर गाड़ियों से जीवाश्म ईंधन के जलने से निकलते हैं और यही तेजाबी वर्षा का मूल कारण बने हैं। इसलिए पर्यावरणीय प्रदूषण, जो कभी एक स्थानीय शहरी समस्या (जिसका सम्बंध लोगों के स्वास्थ्य मात्र से था) की तरह देखा जाता था, अब एक अत्यंत गम्भीर मुद्दा बन गया है, जिसमें इमारतों, पर्यावरण प्रणालियों तथा व्यापक इलाकों में जन स्वास्थ्य का मामला भी शामिल है।

ऊर्जा संकट की विकराल समस्या दुनिया भर के राष्ट्रों के सामने मुँह बाए खड़ी है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद के कुछ वर्षों में जिस परमाणु ज्ञान का उपयोग सैन्य नियंत्रण के अंतर्गत परमाणु हथियार बनाने में हुआ था, उसी ज्ञान का उपयोग शान्तिमय “ऊर्जा” उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाने लगा। उस समय इसके काफी लाभ भी दिख रहे थे। लगभग चार दशकों के तीव्र प्रौद्योगिकी विकास के बाद, परमाणु ऊर्जा का काफी व्यापक उपयोग हो रहा है। कुल तीस देशों की सरकारें विश्व भर में उत्पन्न कुल बिजली का 15 प्रतिशत परमाणु बिजलीघरों द्वारा उपजाति हैं। परन्तु पहले जो बात कही गई थी कि परमाणु शक्ति द्वारा असीमित सस्ती ऊर्जा उपलब्ध हो सकती है, उसकी आपूर्ति अभी तक नहीं हो पाई है।

परमाणु संयंत्रों को बनाने तथा चलाने के अब तक के अनुभवों से उनकी कीमतों, खतरों और लाभों का अध्ययन करने पर पता चला है कि अब यह एक विवाद का गम्भीर विषय बन चुका है। “थ्री माइल आइलैंड” और “चैर्नोबिल” दुर्घटनाओं ने परमाणु सुरक्षा को फिर से अखबारों की सुर्खियों तक पहुँचा दिया। और आज कई देशों में ऊर्जा संकट का हल पाने के लिये नए-नए विकल्पों की खोज भी हो रही है, जिन्हें वैकल्पिक, पुनर्नवीकरणीय और अप्रदूषणकारी स्रोतों का नाम दिया गया है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भविष्य में हम ऊर्जा का अपव्यय नहीं कर सकते।

अंधाधुंध औद्योगीकरण की देन तेजाबी वर्षा, ऊर्जा संकट और पर्यावरण पर मंडराते संकटों में सबसे खतरनाक संकट, परमाणु युद्ध और पारिस्थितिकी संतुलन की आवाज आज चारों ओर उठाई जा रही है, लेकिन पर्यावरण पर पड़ने वाला दबाव राजनैतिक तनाव तथा सेनाओं के संघर्ष का कारण तथा प्रभाव दोनों ही है। कच्चे माल या पर्यावरण के संसाधनों पर कब्जा करने या फिर उस पर नियंत्रण से रोकने के भी कई उदाहरण हैं, जब देशों ने एक दूसरे से युद्ध किए हों। पर्यावरण, विकास और लड़ाई को जोड़ने वाले ताने-बाने काफी जटिल हैं और कई बार तो लोगों की समझ के बाहर होते हैं।

किसी देश के भीतर या उनके आपस में हुए झगड़ों का मुख्य कारण केवल पर्यावरण का दबाव कभी भी नहीं रहा है। लेकिन गरीबी, पर्यावरण का विनाश तथा उससे संघर्ष का आपसी मिलन बहुत विस्फोटक हो जाता है, और इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण कई देशों में पर्यावरणीय शरणार्थी बनने की प्रक्रिया है, जो आज एक गहन चिंता का भी विषय बनती जा रही है। इसके लिये इथियोपिया का काफी अच्छा उदाहरण है। सत्तर के दशक में वह अकाल और भुखमरी के चुंगल में जा फंसा। कारणों का अध्ययन करने पर पता चला कि भूख या दरिद्रता के पीछे अकाल से ज्यादा पर्वतीय क्षेत्रों में जमीन का बेतहाशा उपभोग था, जिसके फलस्वरूप मिट्टी बुरी तरह से कटने लगी और भुखमरी का कारण अकाल नहीं, अपितु एक लम्बे समय से हो रहा धरती का गलत उपयोग तथा दशकों से निरंतर बढ़ती मानव तथा पशु आबादी जिम्मेदार थी।

पर्यावरण की सुरक्षा पर अब विश्वव्यापी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इन संकटों में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्बनडाई ऑक्साइड तथा अन्य गैसों की वातावरण में वृद्धि से संपूर्ण विश्व (जीव-मंडल) का तापमान बढ़ने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इस समस्या को “ग्रीन हाउस इफेक्ट” कहा जा रहा है। विश्व तापमान में बढ़ोतरी का कृषि तथा समुद्री स्तर पर जो असर होगा उससे उनके देशों की जीवन पद्धतियाँ तहस-नहस हो जाएंगी, जिससे संसाधनों के अत्यधिक दोहन की होड़ और बढ़ जाएगी। इस संकट से बचने के लिये विश्व तापमान को स्थिर रखने के प्रयास में वृद्धि करनी होगी। ओजोन की समस्या भी सर उठाए खड़ी है। और इस समस्या पर विकसित राष्ट्रों ने विचार-विमर्श आरम्भ कर दिया है, लेकिन इसमें विकासशील राष्ट्रों को शामिल करना होगा।

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