Hindi, asked by princessangel, 1 year ago

Hindi Essay on parhit saris dharm nahi bhai

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Answered by nish14
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मैं यहां ज्ञान बघारने नहीं आया हूं. मैं ज्ञानी हूं भी नहीं. मैं एक यथार्थवादी मनुष्य हूं जो अपने पेट के साथ-साथ दूसरों के पेट की भी चिंता करता है. मैं यहां आता हूं यह बताने कि आपके मन में गरीब के लिए जो सुप्त भाव है वह जागृत हो. अपने सब काम करते हुए आप वे काम भी करें जिसकी जिम्मेदारी आपको महसूस नहीं होती.

आपको यह जिम्मेदारी महसूस नहीं होती कि कोई भूखा है तो आप भी अपनी तरफ से कोशिश करें कि उसके पेट में अन्न का दाना चला जाए. और केवल मनुष्य ही क्यों? पशु-पक्षी सहित सभी जीवों की चिंता आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा? किसी की अपेक्षा क्यों करते हैं? दुनिया के विकास में आपका भी उतना ही योगदान है जितना किसी और का.  इसलिए यह नहीं कह सकते कि और लोग तो काम कर ही रहे हैं. मुझे करने की क्या जरूरत है. यह कहकर आप भाग नहीं सकते. आपको अपने हिस्से का काम करना है. दूसरों के लिए और खुद अपने लिए भी. नहीं तो यह कर्ज जन्म-जन्मान्तर आपके साथ चलता रहेगा. हर जन्म में इसमें सूद-ब्याज अलग से जुड़ता चला जाएगा.

दान दीजिए, सेवा करिए, पानी पिलाईये. भोजन कराइये, किसी असहाय के साथ उसके बुरे वक्त में खड़े हो जाइये और कुछ नहीं कर सकते तो लोक कल्याण के लिए नियमित प्रार्थना करिए. जो समझ में आये वह करिए. लेकिन सुबह से शाम तक ज्ञान बघारने की उधेड़बुन में मत लगे रहिए. दुनिया के एक वर्ग ने समाज और जीव-जन्तुओं के लिए इतनी समस्या खड़ी कर दी है कि हमसब मिलकर लड़ें तो शायद काम बने. मैं तो अपने हिस्से का कर्म कर रहा हूं आपके हिस्से का कौन करेगा? वह कर्ज कोई दूसरा नहीं उतारेगा. न बाप, न भाई, न दोस्त न मित्र. आप अपने हाथों से जितना वह कर्ज उतारेंगे, उतना ही उतरेगा.

मैं सन्यासी बनने चला था और  पूरा सांसारिक होकर लौट आया. संन्यास लेने की कोई जरूरत अब समझ में नहीं आती. क्या काला और क्या सफेद. अब कपड़े के रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता. विचारधाराओं की बहस से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. धर्म से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किस धर्म का है. कौन सी पूजा अर्चना करता है. इसलिए संसार में लौट आया. मैं तो संसार में ही रहूंगा और पूरा सांसारिक बनकर रहूंगा. एक-एक आदमी के दिल के दरवाजे पर दस्तक दूंगा और उनसे कहूंगा कि सुखी रहना चाहते हो तो दूसरों के बारे सोचो. एक पल के लिए भी अपनी चिंता मत करना. वह ईश्वर पर छोड़ दो. आपकी समझ पक्की है. आप अपने लिए कुछ न कुछ कर ही लेंगे. उनके लिए सोचिए जो अपने लिए कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं है.

मैं देखता हूं लोग बात-बात में वसुधैव कुटुम्बकम का उल्लेख कर देते हैं और कहते हैं कि भारत में पहले से वैश्विक सोच रही है. मैंने यह भी देखा है कि भूमंडलीकरण के पैरोकार बड़ी बेशर्मी से इस शब्द का उल्लेख कर देते हैं.  वसुधैव कुटुम्बकम का नारा देनेवालों कभी किसी अनजान व्यक्ति के लिए अपने परिवार के सदस्य की चिंता करना, सेवा करना फिर इस शब्द को अपनी जुबान पर ले आना. कभी किसी की ऐसा भीषण गलती पर उसे माफ कर देना जिससे तुम्हारा बहुत बड़ा नुकसान हुआ हो फिर इस शब्द का मर्म समझ में आयेगा. 

दूसरों की सेवा दूसरों पर उपकार समझकर कभी मत करना. यह शुद्ध रूप से तुम अपना कर्जा उतार रहे हो. कर्जदार जब अपना कर्जा उतारता है तो अखबार में विज्ञापन देता है कि मैंने कोई महान काम कर दिया है. कोई महान काम नहीं किया. अपना लिया हुआ कर्ज उतार देता है. बस……ऐसे ही तुम अपना प्रारब्ध समझकर यह काम करना. इसके बाद देखना कि आनंद कैसे तुम्हारे जीवन में झरने की तरह बहता है


princessangel: Thanks for ur answer
nish14: pls mark it as brainlist
Answered by PratyushShit
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उन्होंने ‘परहित’ अर्थात् परोपकार को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म बताया है । वहीं दूसरी ओर दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है । परोपकार ही वह गुण है जिसके कारण प्रभु ईसा मसीह सूली पर चढ़े, गाँधी जी ने गोली खाई तथा गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने सम्मुख अपने बच्चों को दीवार में चुनते हुए देखा ।
सुकरात ने विष के प्याले का वरण कर लिया लेकिन मानवता को सच्चा ज्ञान देने के मार्ग का त्याग नहीं किया । ऋषि दधीचि ने देवताओं के कल्याण के लिए अपना शरीर त्याग दिया। इसके इसी महान गुण के कारण ही आज भी लोग इन्हें श्रद्‌धापूर्वक नमन करते हैं ।
परोपकार ही वह महान गुण है जो मानव को इस सृष्टि के अन्य जीवों से उसे अलग करता है और सभी में श्रेष्ठता प्रदान करता है । इस गुण के अभाव में तो मनुष्य भी पशु की ही भाँति होता ।
‘मैथिलीशरण गुप्त’ जी ने ठीक ही लिखा है कि:
“यह पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।”
अत: वही मनुष्य महान है जिसमें परोपकार की भावना है । वह निर्धनों की सहायता में विश्वास रखता है । वह निर्बलों का सहारा बनता है तथा खुद शिक्षित होता है और शिक्षा का प्रकाश दूसरों तक फैलाता है । परोपकार की भावना से परिपूरित व्यक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भावना को अपनाकर मानवता के कल्याण के लिए निरंतर अग्रसर रहता है ।

हमारे समाज में सामान्य जन परोपकार के प्रति सजग नहीं हैं और अपने ही स्वार्थ में लिप्त रहने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । इसका साक्षात् प्रमाण बड़े-बड़े सरकारी अस्पतालों में देखा जा सकता है जहाँ गरीब बीमार व्यक्तियों की कोई पूछ नहीं है । डाक्टर, नर्स सभी इन लोगों की उपेक्षा करते है ।
मानवीय संवेदनहीनता का पता अन्य दैवी आपदाओं- बाढ़, भूकंप, सूखा आदि स्थितियों में भी चलता है । कभी-कभी जब दंगे-फसाद होते हैं तो लालचियों की बन आती है और वे लूट-खसोट पर उतर आते हैं। ऐसी क्षुद्रताएँ हमार समाज के लिए अभिशाप हैं । अत: आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतर्मन में झाँक कर देखे और अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करे।
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