Hindi, asked by Spanz92, 1 year ago

hindi essey on kisan ki atamakhata

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Answered by ishku
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किसान की आत्मकथा
मैं किसान! पैदा हुआ कीचड़ में, वहीं पला-बढ़ा और पढा़ भी वहीं।
लेकिन उतना ही पढ़ पाया जितना वहां पढ़ाया गया। बढा़यी और
पढ़ायी के उस दौर में एक बात सुनी-सीखी कि कमल पैदा तो कीचड़
में होता है, लेकिन इतना सुन्दर और अद्वितीय होता कि उसे राष्ट्रीय
पुष्प का दर्जा प्राप्त है। फिर क्या था मैं भी सोचने लगा ‘कमल’ जैसा
भविष्य बनाने की। रोज तड़के उठ जाता और लग जाता हाड़-तोड़
मेहनत में। गर्मी के मौसम में चोटी का पसीना एड़ी से होता हुआ खेत
में पहुंचता तो एक ही खयाल आता कि शायद यही होती है खून-पसीने
की कमाई जो दर्जा पांच में पढ़ी थी। लेकिन ये तो पसीने की ही कमाई
हुई, खून की कमाई क्या होती है? यह प्रश्न बार-बार मन में आता।
खैर, वह भी कभी समझ आ जायेगी, इतना सोचकर चिलचिलाती धूप
में भूसे का गट्ठर सिर पर रखकर घर आ जाता। रूखी-सूखी खाकर ठण्डा
पानी पीता और थोड़ी देर आराम के बाद फिर वहीं खेतों में पहंुच जाता।
सोचता था कि मैं इस देश का बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति हूं जो पूरे देश के
लिए अनाज के साथ-साथ चाय, चीनी और दूध पैदा करता हॅंू। लहलहाती
फसलों को देखकर मेरा सीना गर्व से चैड़ा हो जाता कि मेरा भी भविष्य
कमल की तरह उज्ज्वल होगा, राष्ट्रीय स्तर पर मेरा भी सम्मान होगा,
वगैरह-वगैरह। फिर एक दिन मैने सुना कि गांव के पास एक चैड़ी सड़क
बन रही है, और सरकार गांव के खेतों पर कब्जा कर रही है। सुनकर मेरा
कलेजा मुंह को आ गया, फिर अचानक मन में खयाल आया, एसा कैसे हो
सकता है, मैं इस देश का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति ही नहीं अंग भी हूं। यह
सब अफवाह है। परन्तु कुछ दिन बाद मेरा खयाल और विश्वास चकनाचूर
हो गया। जैसे ही मैं खेत पर पहुंचा, बड़ी- बड़ी दैत्याकार मशीनें मेरी प्यारी
उपजाऊ मिट्टी, जिस पर कभी मैं अपने बैलों की घण्टियों की खनकती आवाज
सुना करता था, को गरज-गरज कर उठा कर फेंक रहीं हैं। मेरे होठ कांपने
लगे और आंखें डबडबा गयीं। अंगोछे को मुंह पर रखकर फफकी रोके हुए मैं
घर पहुंचा और बिलख-बिलख कर रो पड़ा। ये हाल सिर्फ मेरा ही नहीं बल्कि
मेरे जैसे हर किसान का था। अगले दिन गांव की चैपाल पर बैठक हुयी जिसमें
तय हुआ कि सरकार के पास चलकर मुआवजा मांगेंगे। आंखों में मुआवजे की
आस लिए किसानों के झुण्ड में मैं भी था, जिसका उज्ज्वल भविष्य का सपना
मेरे खेत की मिट्टी में ही दब गया था। सरकारी दफ्तर पहुंचे तो किसी ने सीधे
मुंह बात तक नहीं की, दुख-दर्द पूंछना तो दूर की बात थी। कुछ किसान उत्तेजित
हो गये और नारेबाजी पर उतर आये, लेकिन कीचड़ में पैदा हुये किसान की
औकात कीचड़ के कीडे़ से ज्यादा कुछ नहीं आंकी गयी। दफ्तर की सुरक्षा के
लिए खड़े खाकी वर्दी पहने वे योद्धा जो आमतौर पर अपनी सुस्ती और लापरवाही
के लिए जाने जाते हैं, हमारे ऊपर काल बनकर टूट पडे़। धांय-धांय की आवाज
से भगदड़ मच गयी। एक-एक करके तीन गोलियां मेरे सीने में आ धंसीं, और
उज्ज्वल भविष्य के सपने के साथ मेरी आंखें बन्द हो गयीं। मेरी मौत के बाद भी
मामला यहीं खत्म नहीं हुआ और सफेद पोशाकें पहने लोगों का हुजूम मेरी मृत
काया के पास आकर ‘सरकार मुर्दाबाद’ तथा ‘किसानों का खून बेकार नहीं
जायेगा’ जैसे नारे लगाने लगा। वहीं पास में भटक रही मेरी आत्मा को समझ
आने लगा कि शायद यही है मेरे खून की कमाई और साथ-साथ यह भी समझ
आ गया कि मेरे ‘खून-पसीने’ की कमाई मेरे लिए नहीं बल्कि उन्हीं के लिए है जो
नारेबाजी कर मेरी मौत पर राजनीति का मजा लूट रहे हैं।
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