hindi ke itihaas par anuched
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हिन्दी साहित्य पर अगर समुचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में, हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही हिन्दी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी'अपभ्रंश' और अब - हिन्दी।[1] आलोचक कह सकते हैं कि 'वैदिक संस्कृत' और 'हिन्दी' में तो जमीन-आसमान का अन्तर है। पर ध्यान देने योग्य है कि हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि जिन भाषाओं को 'बहुत पुरानी' बताया जाता है, उनके भी प्राचीन और वर्तमान रूपों में जमीन-आसमान का अन्तर है; पर लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं बदले और उनके परिवर्तित स्वरूपों को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन', 'आधुनिक' आदि कहा गया, जबकि 'हिन्दी' के सन्दर्भ में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा।[2]
हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अपभ्रंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश-अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य-रचना प्रारम्भ हो गयी थी।
साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या 'प्राकृताभास हिन्दी' में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देशी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ।
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भारतीय इतिहास पर निबंध | Essay on Indian History | Hindi
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भारतीय इतिहास पर निबंध | Essay on Indian History in Hindi language!
Essay # 1. भारतीय इतिहास का भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geographical Background of Indian History):
हिमालय पर्वत के दक्षिण तथा हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित एशिया महाद्वीप का विशाल प्रायद्वीप भारत कहा जाता है । इसका विस्तृत भूखण्ड, जिसे एक उपमहाद्वीप कहा जाता है, आकार में विषम चतुर्भुज जैसा है ।
यह लगभग 2500 मील लम्बा तथा 2000 मील चौड़ा है । रूस को छोड़कर विस्तार में यह समस्त यूरोप के बराबर है । यूनानियों ने इस देश को इण्डिया कहा है तथा मध्यकालीन लेखकों ने इस देश को हिन्द अथवा हिन्दुस्तान के नाम से सम्बोधित किया है ।
भौगोलिक दृष्टि से इसके चार विभाग किये जा सकते हैं:
(i) उत्तर का पर्वतीय प्रदेश:
यह तराई के दलदल वनों से लेकर हिमालय की चोटी तक विस्तृत है जिसमें कश्मीर, काँगड़ा, टेहरी, कुमायूँ तथा सिक्किम के प्रदेश सम्मिलित हैं ।
(ii) गंगा तथा सिन्धु का उत्तरी मैदान:
इस प्रदेश में सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियाँ, सिन्ध तथा राजस्थान के रेगिस्तानी भाग तथा गंगा और यमुना द्वारा सिंचित प्रदेश सम्मिलित हैं । देश का यह भाग सर्वाधिक उपजाऊ है । यहाँ आर्य संस्कृति का विकास हुआ । इसे ही ‘आर्यावर्त’ कहा गया है ।
(iii) दक्षिण का पठार:
इस प्रदेश के अर्न्तगत उत्तर में नर्मदा तथा दक्षिण में कृष्णा और तुड्गभद्रा के बीच का भूभाग आता है ।
(iv) सुदूर दक्षिण के मैदान:
इसमें दक्षिण के लम्बे एवं संकीर्ण समुद्री क्षेत्र सम्मिलित हैं । इस भाग में गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के उपजाऊ डेल्टा वाले प्रदेश आते हैं । दक्षिण का पठार तथा सुदूर दक्षिण का प्रदेश मिलकर आधुनिक दक्षिण भारत का निर्माण करते हैं । नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ, विन्धय तथा सतपुड़ा पहाड़ियों और महाकान्तार के वन मिलकर उत्तर भारत को दक्षिण भारत से पृथक् करते हैं ।
इस पृथकता के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत आर्य संस्कृति के प्रभाव से मुक्त रहा, जबकि उत्तर भारत में आर्य संस्कृति का विकास हुआ । दक्षिण भारत में एक सर्वथा भिन्न संस्कृति विकसित हुई जिसे ‘द्रविण’ कहा जाता है । इस संस्कृति के अवशेष आज भी दक्षिण में विद्यमान हैं ।
प्रकृति ने भारत को एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई प्रदान की है । उत्तर में हिमालय पर्वत एक ऊंची दीवार के समान इसकी रक्षा करता रहा है तथा हिन्द महासागर इस देश को पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण से घेरे हुए हैं । इन प्राकृतिक सीमाओं द्वारा बाह्य आक्रमणों से अधिकांशत: सुरक्षित रहने के कारण भारत देश अपनी एक सर्वथा स्वतन्त्र तथा पृथक् सभ्यता का निर्माण कर सका है ।
भारतीय इतिहास पर यहाँ के भूगोल का गहरा प्रभाव-पड़ा है । यहां के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अलग कहानी है । एक ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत हैं तो दूसरी ओर नीचे के मैदान हैं, एक ओर अत्यन्त उपजाऊ प्रदेश है तो दूसरी ओर विशाल रेगिस्तान है । यहाँ उभरे पठार, घने वन तथा एकान्त घाटियाँ हैं । एक ही साथ कुछ स्थान अत्यन्त उष्ण तथा कुछ अत्यन्त शीतल है ।
विभिन्न भौगोलिक उप-विभागों के कारण यहाँ प्राकृतिक एवं सामाजिक स्तर की विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं । ऐसी विषमता यूरोप में कहीं भी दिखायी नहीं देती हैं । भारत का प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र एक विशिष्ट इकाई के रूप में विकसित हुआ है तथा उसने सदियों तक अपनी विशिष्टता बनाये रखी है ।
इस विशिष्टता के लिये प्रजातीय तथा भाषागत तत्व भी उत्तरदायी रहे हैं । फलस्वरूप सम्पूर्ण देश में राजनैतिक एकता की स्थापना करना कभी भी सम्भव नहीं हो सका है, यद्यपि अनेक समय में इसके लिये महान शासकों द्वारा प्रयास किया जाता रहा है । भारत का इतिहास एक प्रकार से केन्द्रीकरण तथा विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों के बीच निरन्तर संघर्ष की कहानी है ।
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