Hindi निबंध नदि किनारे दो घंटे
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अभी में कुछ ही दूर गया था कि मुझे अपना मित्र आलोक दिखाई पड़ा । मैं साइकिल से उत्तर रहर उससे बातें करने लगा । मैंने उससे नदी की सैर का प्रस्ताव किया । वह फौरन तैयार हो गया । उसका घर पास में ही था ।
वह अपने घर पर बताकर अपनी साइकिल लेकर फौरन आ गया और हम दोनों अपनी-अपनी साइकिलों पर हंसते-गाते नदी की ओर चल पड़े । पंद्रह-बीस मिनट में हम नदी के किनारे पहुंच गए ।
नदी के किनारे पहुँचकर हमने दोनों साइकिलें एक जंजीर में बाधकर ताला लगा दिया और एक पड़े को बताकर हम घाट पर आ गए । नदी का दृश्य बड़ा सुहावना लग रहा था । रविवार का दिन था, इसलिए घाट पर अनेक पुरुष, रत्री और बच्चे थे ।
वे नदी में किल्लोल कर रहे थे । कुछ लोग गहरे में तैर रहे थे और जो लोग तैरना नहीं जानते थे, वे किनारे ही पानी में डुबकियाँ लगा रहे थे और एक-दूसरे पर पानी के छींटे मार-मार हंस-खेल रहे थे । थोड़ी दूर पर ही कुछ लोग फींच-फींच कर साबुन से कपड़े धो रहे थे ।
छोटे-छोटे बच्चे अपने माँ-बाप की गोद में थे, जो उन्हें पानी में डुबकी लगवा रहे थे और उछाल-उछाल कर आनंदित हो रहे थे । कुछ बच्चे नदी के किनारे की ठंडी बालू में खेल रहे थे । एक ओर कुछ लड़कियों बालू के घरौंदे बना रही थीं । नदी पर अनेक नावें तैर रही थीं । कॉलेज के कुछ विद्यार्थी रचर्य नाव चला रहे थे । नावें नदी की धारा में बहती हुई बड़ी सुन्दर दिख रही थीं ।
थोडी दूर पर धोबी घाट दिखाई दे रहा था । वही बहुत-से धोबी नदी किनारे पत्थर के पाट पर कपड़े पीट रहे थे और धो-धो कर निचोड़ते और अपनी पत्नी तथा बच्चों को पकड़ाते जाते थे । वे उन्हें बालू पर सूखा रहे थे । दूर हमें कुछ मछुआसे की पाल लगी नावें दिख रही थीं । वे नाव से घुमा कर नदी में जाल फेंक देते थे और मछलियों के फंसने की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
नदी के किनारे दो घंटे (निबंध)
पिछले दिनों में अपने चाचा के गाँव गया था। मेरे चाचा हमारे पुश्तैनी गाँव में रहते हैं, जबकि हमारे पिताजी बहुत पहले ही शहर में शिफ्ट हो गए थे। हमारे चाचा गाँव में रहते हैं और गाँव में ही एक दुकान चलाते हैं। हमारे चाचा का गाँव यानी हमारा पुश्तैनी गाँव एक नदी के किनारे बसा हुआ है।
इससे पहले मैंने कभी किसी नदी के किनारे इतना समय नहीं बिताया था। चाचा के घर पर जाकर सबसे पहले दिन ही मैं नदी के किनारे का आनंद लेने के लिए अपने चचेरे भाई के साथ चला गया। नदी के किनारे जाकर हम लोग एक पत्थर पर जाकर बैठ जाए और बातें करने लगे।
नदी के किनारे पर कुछ धोबी कपड़े धो रहे थे तो एक जगह जानवर पानी पी रहे थे। नदी कुछ नावें भी चल रही थी। कुछ मछुआरे मछली पकड़ रहे थे। नदी का वातावरण शांत था। कलकल बहती हुई नदी मन को सुकून प्रदान कर रही थी। ठंडी ठंडी शीतल बयार चल रही थी जो मन को प्रफुल्लित कर रही थी।
नदी के किनारे का वातावरण आध्यात्मिकता का एहसास दिला रहा था। अब समझ में आया था कि साधु सन्यासी नदी के किनारे अपना आश्रम क्यों बनाते थे।
नदी के किनारे दो घंटे तक हम लोग बैठकर बातें करते रहे और रात होने को आ गई। चूँकि हम लोग शाम को 5 बजे गए थे और 7 बजे अंधेरा होने लगा था। इसके लिए हमें वापस घर आना पड़ा। 2 घंटे का समय बेहद आनंददायक और मन ही नहीं कर रहा था। वहाँ से वापस आने का मन ही नहीं कर रहा था, लेकिन आना पड़ा।
कुल मिलाकर नदी के किनारे के वे दो घंटे अद्भुत थे।
#SPJ2
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