Hindi stories about respecting of grandparents
Answers
Answered by
1
मैंने वो पीपल के पेड़ के बारे में बहुत कुछ सुना था, लेकिन कभी इसे देखने या इसके पास जाने का अवसर नहीं मिला था। बड़े-बुजुर्गों का कहना था कि यह पेड़ चमत्कारी पेड़ों में से एक है। दर्शनमात्र से ही मन के क्लेश दूर हो जाते हैं- अपूर्व शांति का अनुभव होता है। दादी बताती थी कि निर्मल मन से इस पेड़ की पूजा करने से आदमी की मनोकामना पूर्ण होती है। कपटी और छली लोगों से पेड़ नफरत करता है। इस सन्दर्भ में दादी रामचरित मानस की चौपाई भी पढ़ कर सुना देती थी, ‘‘निर्मल जन-मन सो मोहि पावा, मोहि कपट-छल –छिद्र न भावा‘‘ कहते हैं कि ‘‘कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा के नीर, पाछे-पाछे हरि फिरत कहत कबीर-कबीर।‘
दादी को इस पीपल के पेड़ से इतना लगाव था कि बिछावन से उठकर उसी के ध्यान में मग्न हो जाया करती थी. स्नान-ध्यान करने के पश्चात एक लोटा जल वह रोज डाला करती थी- इसके जड़ में. मिट्टी का दिया जलाना और धूप दिखाना भी वह कभी नहीं भूलती थी। प्रसाद में बताशे ले जाना उनका नियमित कार्य होता था। गाँव के कुछेक लड़के नंग-धड़ंग प्रसाद की लालच में पहुँच जाते थे। इन बच्चों में प्रसाद बाँटना दादी के लिए हर्ष की बात होती थी।
दादी तीन जमात तक ही पड़ी थी, लेकिन रामायण-महाभारत, वेद-पुराण की कथाओं और प्रसंगों से भली-भाँति परिचित थीं। सूरदास, मीरा, जायसी, रसखान, रहीम, तुलसी, कबीर के दोहे तो उनकी जुबान पर बैठे हुये थे।
कहते हैं न कि देखा-देखी पुण्य और देखा-देखी पाप! दादी को नियमित इस पेड़ की पूजा करते देख गाँव की संभ्रान्त महिलाएँ भी पेड़ की पूजा-अर्चना करने आती रहती थीं। शनिवार के दिन पुरुषों को भी इसकी जड़ में जल डालते हुए अकसराँ देखा करते थे। दादी का कहना था कि शनिवार के दिन पीपल की जड़ में जल डालने से व्यक्ति शनि के प्रकोप से मुक्त हो जाता है। सोमवारी मौनी अमावस्या के दिन तो पेड़ के समीप महिलाओं की भीड़ जुट जाती थी। महिलाएँ सरोवर या नदी में स्नान करके मौन व्रत धारण कर इस पेड़ की परिक्रमा करके माथा टेकती थीं ताकि उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाय। ऐसी मान्यता थी कि सच्चे मन से माथा टेकने से श्रद्धालुओं की मुरादें पूरी हो जाती थीं।
मैं उन दिनों की बात कर रहा हूँ जब देश आजाद हुए महज कुछेक साल ही हुये थे। अंग्रेजियत की बू सारे महकमें में व्याप्त थी। पढ़ाई-लिखाई के मामले में स्कूल में शिक्षकगण विद्यार्थियों से कड़ाई से पेश आते थे। मुझे पास ही सराय स्कूल में भर्ती करा दिया गया था, लेकिन मैं स्कूल जाने के वक्त चौकी या खटिया के नीचे दुबक कर छुप जाया करता था। माँ तो छड़ी लेकर मुझे ढूँढ़ती थी, लेकिन दादी मेरे बचाव में झूठ बोलने में भी गुरेज नहीं करती थी। पकड़े जाने पर मैं जब माँ के हाथों पीटा जाता था तो दादी आकर छुड़ाती थी। मुझे पढ़ने-लिखने में बिल्कुल मन नहीं लगता था।
हैदर मास्टर ( हेड पंडित ) बड़े ही कडि़यल मिजाज के थे। उन्हें अपनी अंगुलियों पर विद्यार्थियों के नाम याद रहते थे तथा सबों के माता-पिता तथा घरों से परिचित थे। हफ्ता भर स्कूल नहीं जाने से एक शिक्षक के साथ तीन लड़कों को मुझे खींचकर ले आने का आदेश दे डालते थे। ऐसी घटना मेरे साथ दो-तीन बार हुई। शिक्षक यमराज की तरह घर में घुसकर मुझे तलाशना शुरू कर देते थे। एक लड़का मेरा दोनों पैर, दूसरा लड़का दोनों हाथ और तीसरा मेरा बस्ता पकड़ झुलाते-गाते हुये स्कूल ले जाते थे। ये लड़के काफी आह्लादित होते थे और रास्ते भर ‘‘आलकी, पालकी, जै कन्हैया लाल की ‘‘गाते हुए मुझे स्कूल ले जाते थे। मैं पीछे सिर घुमाकर देखता था कि मास्टर साहब की छड़ी उनके हाथ में है कि नहीं।
मेरे स्कूल पहुँचने के साथ दावानल की तरह खबर पूरे छात्रों के बीच फैल जाती थी। लड़के मुझे टंगे हुये देखने के लिए व्यग्र हो उठते थे। हैदर मास्टर के समक्ष मुझे बलि के बकरे की तरह खड़ा कर दिया जाता था। दो-चार झापड़ रसीद करने के बाद मुझे अपने वर्ग में जाने का हुक्म दे दिया जाता था। मैं भगवान से मन ही मन प्रार्थना करता था कि गिनती व पहाड़ा का वक्त जल्द आ जाय, क्योंकि छुट्टी होने के पूर्व गिनती व पहाड़ा साथ-साथ सबों को पढ़ाया जाता था।
‘‘एक से सौ तक गिनती एवं दो से बीस तक पहाड़ा सब को कंठस्थ होना चाहिये।‘‘ हैदर मास्टर का हुक्म था।
इतना कुछ होने के बाबजूद मैं पढ़ने-लिखने में फिसड्डी था और पढ़ने-लिखने से जी चुराता था। घर तो घर आस-पड़ोस के लोगों के मन में धारणा बन गई थी कि अब मैं पढूँगा-लिखूँगा नहीं, बड़ा होकर भेड़-बकरी चराऊँगा। दादी को यह बात पचती नहीं थी। एक दिन उसने मुझे निर्मल-बार ( कपड़ा धोने का एक लोकप्रिय साबुन ) से नहला – धुलाकर तैयार कर दिया। अच्छे-अच्छे कपड़े पहना दिये और अपने साथ इसी पीपल के पेड़ के पास ले गयी। उसने नतमस्तक होकर प्रणाम करने के लिए कहा। मैं थोड़ी देर के लिये उपर पेड़ की चारों तरफ गौर से देखा और सुबुद्धि देने के लिए हाथ जोड़कर प्रार्थना की। दादी भी मन ही मन कुछ मन्नतें मांगी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि दादी ने मुझे इसी उद्देश्य से नहा-धुलाकर यहाँ लाया था।
उस दिन से पता नहीं मेरे स्वभाव एवं आचरण में आश्चर्यजनक परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया। इसे ईश्वरीय शक्ति का परिणाम कहिये या कुदरत का करिश्मा मैं नियमित विद्यालय जाने लगा। यही नहीं पढ़ने-लिखने में भी मेरा मन लगने लगा। मैं बिस्तर से उठने के पश्चात तथा सोने से पहले दादी को हाथ पकड़कर सामने खड़ा कर देता और स्वयं दीवार से सटकर खड़ा हो जाता तथा एक से सौ तक गिनती और दो से बीस तक पहाड़ा सुना देता। दादी के चेहरे पर जो खुशी उस समय मैंने देखी, उसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो मेरे आलोचक थे, वे अब मेरे प्रशंसक बन गये थे। घर में जो भी व्यक्ति आता, दादी गर्व के साथ मुझे उसके सामने खड़ा कर देती और गिनती-पहाड़ा सुनाने को कहती . मैं बेधड़क सुनाया करता था और मन ही मन प्रफुल्लित होता था।
Please mark me as brainliest
दादी को इस पीपल के पेड़ से इतना लगाव था कि बिछावन से उठकर उसी के ध्यान में मग्न हो जाया करती थी. स्नान-ध्यान करने के पश्चात एक लोटा जल वह रोज डाला करती थी- इसके जड़ में. मिट्टी का दिया जलाना और धूप दिखाना भी वह कभी नहीं भूलती थी। प्रसाद में बताशे ले जाना उनका नियमित कार्य होता था। गाँव के कुछेक लड़के नंग-धड़ंग प्रसाद की लालच में पहुँच जाते थे। इन बच्चों में प्रसाद बाँटना दादी के लिए हर्ष की बात होती थी।
दादी तीन जमात तक ही पड़ी थी, लेकिन रामायण-महाभारत, वेद-पुराण की कथाओं और प्रसंगों से भली-भाँति परिचित थीं। सूरदास, मीरा, जायसी, रसखान, रहीम, तुलसी, कबीर के दोहे तो उनकी जुबान पर बैठे हुये थे।
कहते हैं न कि देखा-देखी पुण्य और देखा-देखी पाप! दादी को नियमित इस पेड़ की पूजा करते देख गाँव की संभ्रान्त महिलाएँ भी पेड़ की पूजा-अर्चना करने आती रहती थीं। शनिवार के दिन पुरुषों को भी इसकी जड़ में जल डालते हुए अकसराँ देखा करते थे। दादी का कहना था कि शनिवार के दिन पीपल की जड़ में जल डालने से व्यक्ति शनि के प्रकोप से मुक्त हो जाता है। सोमवारी मौनी अमावस्या के दिन तो पेड़ के समीप महिलाओं की भीड़ जुट जाती थी। महिलाएँ सरोवर या नदी में स्नान करके मौन व्रत धारण कर इस पेड़ की परिक्रमा करके माथा टेकती थीं ताकि उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाय। ऐसी मान्यता थी कि सच्चे मन से माथा टेकने से श्रद्धालुओं की मुरादें पूरी हो जाती थीं।
मैं उन दिनों की बात कर रहा हूँ जब देश आजाद हुए महज कुछेक साल ही हुये थे। अंग्रेजियत की बू सारे महकमें में व्याप्त थी। पढ़ाई-लिखाई के मामले में स्कूल में शिक्षकगण विद्यार्थियों से कड़ाई से पेश आते थे। मुझे पास ही सराय स्कूल में भर्ती करा दिया गया था, लेकिन मैं स्कूल जाने के वक्त चौकी या खटिया के नीचे दुबक कर छुप जाया करता था। माँ तो छड़ी लेकर मुझे ढूँढ़ती थी, लेकिन दादी मेरे बचाव में झूठ बोलने में भी गुरेज नहीं करती थी। पकड़े जाने पर मैं जब माँ के हाथों पीटा जाता था तो दादी आकर छुड़ाती थी। मुझे पढ़ने-लिखने में बिल्कुल मन नहीं लगता था।
हैदर मास्टर ( हेड पंडित ) बड़े ही कडि़यल मिजाज के थे। उन्हें अपनी अंगुलियों पर विद्यार्थियों के नाम याद रहते थे तथा सबों के माता-पिता तथा घरों से परिचित थे। हफ्ता भर स्कूल नहीं जाने से एक शिक्षक के साथ तीन लड़कों को मुझे खींचकर ले आने का आदेश दे डालते थे। ऐसी घटना मेरे साथ दो-तीन बार हुई। शिक्षक यमराज की तरह घर में घुसकर मुझे तलाशना शुरू कर देते थे। एक लड़का मेरा दोनों पैर, दूसरा लड़का दोनों हाथ और तीसरा मेरा बस्ता पकड़ झुलाते-गाते हुये स्कूल ले जाते थे। ये लड़के काफी आह्लादित होते थे और रास्ते भर ‘‘आलकी, पालकी, जै कन्हैया लाल की ‘‘गाते हुए मुझे स्कूल ले जाते थे। मैं पीछे सिर घुमाकर देखता था कि मास्टर साहब की छड़ी उनके हाथ में है कि नहीं।
मेरे स्कूल पहुँचने के साथ दावानल की तरह खबर पूरे छात्रों के बीच फैल जाती थी। लड़के मुझे टंगे हुये देखने के लिए व्यग्र हो उठते थे। हैदर मास्टर के समक्ष मुझे बलि के बकरे की तरह खड़ा कर दिया जाता था। दो-चार झापड़ रसीद करने के बाद मुझे अपने वर्ग में जाने का हुक्म दे दिया जाता था। मैं भगवान से मन ही मन प्रार्थना करता था कि गिनती व पहाड़ा का वक्त जल्द आ जाय, क्योंकि छुट्टी होने के पूर्व गिनती व पहाड़ा साथ-साथ सबों को पढ़ाया जाता था।
‘‘एक से सौ तक गिनती एवं दो से बीस तक पहाड़ा सब को कंठस्थ होना चाहिये।‘‘ हैदर मास्टर का हुक्म था।
इतना कुछ होने के बाबजूद मैं पढ़ने-लिखने में फिसड्डी था और पढ़ने-लिखने से जी चुराता था। घर तो घर आस-पड़ोस के लोगों के मन में धारणा बन गई थी कि अब मैं पढूँगा-लिखूँगा नहीं, बड़ा होकर भेड़-बकरी चराऊँगा। दादी को यह बात पचती नहीं थी। एक दिन उसने मुझे निर्मल-बार ( कपड़ा धोने का एक लोकप्रिय साबुन ) से नहला – धुलाकर तैयार कर दिया। अच्छे-अच्छे कपड़े पहना दिये और अपने साथ इसी पीपल के पेड़ के पास ले गयी। उसने नतमस्तक होकर प्रणाम करने के लिए कहा। मैं थोड़ी देर के लिये उपर पेड़ की चारों तरफ गौर से देखा और सुबुद्धि देने के लिए हाथ जोड़कर प्रार्थना की। दादी भी मन ही मन कुछ मन्नतें मांगी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि दादी ने मुझे इसी उद्देश्य से नहा-धुलाकर यहाँ लाया था।
उस दिन से पता नहीं मेरे स्वभाव एवं आचरण में आश्चर्यजनक परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया। इसे ईश्वरीय शक्ति का परिणाम कहिये या कुदरत का करिश्मा मैं नियमित विद्यालय जाने लगा। यही नहीं पढ़ने-लिखने में भी मेरा मन लगने लगा। मैं बिस्तर से उठने के पश्चात तथा सोने से पहले दादी को हाथ पकड़कर सामने खड़ा कर देता और स्वयं दीवार से सटकर खड़ा हो जाता तथा एक से सौ तक गिनती और दो से बीस तक पहाड़ा सुना देता। दादी के चेहरे पर जो खुशी उस समय मैंने देखी, उसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो मेरे आलोचक थे, वे अब मेरे प्रशंसक बन गये थे। घर में जो भी व्यक्ति आता, दादी गर्व के साथ मुझे उसके सामने खड़ा कर देती और गिनती-पहाड़ा सुनाने को कहती . मैं बेधड़क सुनाया करता था और मन ही मन प्रफुल्लित होता था।
Please mark me as brainliest
Similar questions