Hindi summary of patol babu film star class10
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सारांश
यह कहानी छोटे-छोटे कलाकारों की आकांक्षाओं और सपनांे की हैऋ और उनकी है जो चलचित्रा बनाते हैं, और इन लोगों की ओर से उदासीन रहते हैं। पटोल बाबू एक पचास वर्षीय प्रौढ़ व्यक्ति थे। उनवेफ सिर पर एक भी बाल नहीं था। उनवेफ पड़ोसी, निशिकान्त घोष ने उन्हें बताया कि उनवेफ बहनोई नरेश दत्त एक पिश्फल्म निर्माता हैं और उन्हें पटोल बाबू से मिलते-जुलते अभिनेता की आवश्यकता है। पटोल बाबू यह सुनकर इतने उत्तेजित हो गये कि उन्होंने सब्शी मंडी में सब गलत खरीदारी कर ली। पटोल बाबू को याद आ गया कि उन्हें अपनी जवानी में स्टेज ;रंगमंचद्ध पर अभिनय करने का बेहद शौक था और उन्होंन बहुत सी जात्राओं में भाग लिया था। एक समय था जब लोग उनका अभिनय देखने वेफ लिए टिकट खरीदते थे।
सन् 1934 में वह वंफचापाड़ा में रहते थे, हडसन और किम्बरली नामक वंफपनी में क्लर्वफ का काम करते थे। तब उन्होंने अपनी नाटक वंफपनी खोलने की सोची थी, परन्तु तब उनकी नौकरी छूट गई। उसवेफ बाद से उन्हें जीविका कमाने वेफ लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने एक बंगला पिश्फल्म में काम किया, बीमा कम्पनी में बीमा बेचने वाले का काम किया, पर वुफछ भी ज्यादा दिन नहीं चला। वह अनेक दफ्रश्तरों में जाते रहे पर कहीं भी सपफलता नहीं मिली। उनको अभी भी अपने कई पात्रों वेफ संवाद याद हैं।
उनकी उत्सुकता नये काम वेफ लिए जागृत हुई और नरेश दत्त ने उन्हें दूसरे दिन सुबह पैफराडे हाउस में उपस्थित होने को कहा। पूछने पर नरेश दत्त ने पटोल बाबू को बताया कि उन्हें एक भुलक्कड़ आदमी की भूमिका करनी है, जिसमें उन्हें संवाद भी बोलना होगा। पटोल बाबू बहुत खुश हुए। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि उन्हें पता है वह भूमिका छोटी है, परन्तु छोटी-छोटी भूमिकाओं वेफ बाद ही एक बड़ा काम मिलता है। पटोल बाबू की पत्नी को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ पर पटोल बाबू वुफछ भी सुनने को तैयार नहीं थे।
दूसरे दिन, प्रातःकाल, पटोल बाबू ठीक समय पर पैफराडे हाउस पहुँच गये। वहाँ लोगों का समूह वैफमरे और दूसरे यन्त्रों को इध्र से उधर ले जा रहा था। नरेश दत्त ने उन्हें अपनी बारी की प्रतीक्षा करने को कहा। पटोल बाबू कापश्फी ¯चतित थे क्योंकि उन्हें यह नहीं मालूम था कि उन्हें क्या बोलना है। वह बड़े अभिनेताओं वेफ सामने अपना मशाक नहीं बनवाना चाहते थे।
इतने में शु¯टग शरू हो गई और एक सीन को तैयार भी कर लिया गया। अब पटोल बाबू से न रहा गया। वह नरेश दत्त वेफ पास गये और अपना संवाद माँगा। वह बहुत ही निराश हुए जब उन्होंने देखा कि संवाद वेफवल एक शब्द ‘‘ओह’’ था। पटोल बाबू को भुलक्कड़ आदमी की तरह नाटक करना था जो सड़क पर चलते हुए एक मशहूर अभिनेता, चंचल वुफमार से टकराता है और ‘‘ओह’’ कहकर चला जाता है। पटोल बाबू को एक ओर जाकर इंतशार करने को कहा गया।
पटोल बाबू को ध्क्का लगा और वह अपमानित भी हुए। उन्हें लगा कि पूरा रविवार एक अच्छे पात्रा वेफ धेखे में व्यर्थ हो गया। पर तब उन्हें अपने गुरु, गोगेन पकराशी का परामर्श स्मरण हो आया। एक कलाकार को हाथ में आए किसी भी सुअवसर को छोटा नहीं समझना चाहिए, चाहे वह वुफछ भी हो। इस विचार ने उनकी खिन्नता को दूर कर दिया और वह अनेक प्रकार से ‘ओह’ बोलने का अभ्यास करने में जुट गए।
आखिरकार, एक घन्टे बाद पटोल बाबू को बुलावा आया। पटोल बाबू ने निर्देशक को सलाह दी कि अगर टक्कर उस समय हो जब उनकी समाचार पत्रा पर नजरें टिकी हों, तो सीन बहुत वास्तविक लगेगा। एक समाचार पत्रा उसी समय लाया गया। निर्देशक को लगा कि पटोल बाबू वेफ मुँह पर मूँछ अच्छी लगेगी और एक मूँछ उनवेफ मुख पर चिपका दी गई। शाट वेफ दौरान पटोल बाबू ने अपने सर्वाेच्य अभिनय की क्षमता का प्रदर्शन, 25» वेदना और 25» आश्चर्य का मिश्रण करवेफ, एक ‘‘ओह’’ में कर दिया। सब लोगों ने पटोल बाबू की अभिनय की निपुणता की सराहना की और वह संतुष्ट होकर पान की दुकान वेफ पास चले गये। वह अति प्रसन्न थे कि इतने वर्षों पश्चात् भी उनकी अभिनय की योग्यता ध्ुँध्ली नहीं हुई। पर अब उन्हें निराशा का आभास होने लगा क्योंकि किसी ने भी उनवेफ अभिनय वेफ प्रति समर्पण को नहीं पहचाना। पिश्फल्मी लोगों वेफ लिए यह वेफवल एक मिनट का काम था और दूसरे मिनट वह उसे भूल भी गये थे। उन्हें मालूम था कि इस काम वेफ लिए उन्हें पैसे मिलेंगे जो कि बहुत थोड़े से होंगे, और उन्हें पैसों की बहुत आवश्यकता है। पर क्या बीस रुपयों की उनवेफ असीम संतोष से तुलना की जा सकती है? दस मिनट बाद, नरेश दत्त हैरान रह गये कि पटोल बाबू अपने पैसे लिए बिना ही चले गये। दूसरे ही मिनट, सब उनको भूल गये, और वैफमरा दूसरे सीन की तैयारी में लग गया।
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