भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण को बहुत महत्व दिया गया है। यहां मानव जीवन को हमेशा मूर्त या अमूर्त रूप में पृथ्वी , जल , वायु , आकाश , सूर्य , चन्द , नदी , वृक्ष एवं पशु-पक्षी आदि के साहचर्य में ही देखा गया है। पर्यावरण शब्द का अर्थ है हमारे चारों ओर का आवरण। पर्यावरण संरक्षण का तात्पर्य है कि हम अपने चारों ओर के आवरण को संरक्षित करें तथा उसे अनुकूल बनाएं। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिंतन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है , जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है। भारतीय संस्कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि यहां पर्यावरण संरक्षण का भाव अति पुराकाल में भी मौजूद था , पर उसका स्वरूप भिन्न था। उस काल में कोई राष्ट्रीय वन नीति या पर्यावरण पर काम करनेवाली संस्थाएं नहीं थीं। पर्यावरण का संरक्षण हमारे नियमित क्रिया-कलापों से ही जुड़ा हुआ था। इसी वजह से वेदों से लेकर कालिदास , दाण्डी , पंत , प्रसाद आदि तक सभी के काव्य में इसका व्यापक वर्णन किया गया है। भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश से ही हुई है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना , देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना , इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी , पर्वत , वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें। श्रीकृष्ण ने स्वयं को ऋतुस्वरूप , वृक्ष स्वरूप , नदीस्वरूप एवं पर्वतस्वरूप कहकर इनके महत्व को रेखांकित किया है। भारतीय विचारधारा में जीवन का विभाजन भी प्रकृति पर ही आधारित था। चार आश्रमों में से तीन तो पूरी तरह से प्रकृति के साथ ही व्यतीत होते थे। ब्रह्माचर्य आश्रम , जो गुरु-गृह में व्यतीत होता था और गुरुकुल सदैव वन-प्रदेश , नदी तट पर ही हुआ करते थे , जहां व्यक्ति सदैव प्रकृति से जुड़ा रहता था। वानप्रस्थ आश्रम में भी व्यक्ति वन प्रदेशों में रहकर आत्मचिंतन तथा जन कल्याण के कार्य करता था। संन्यास आश्रम में तो समग्र उत्तरदायित्वों को भावी पीढ़ी को सौंपकर निर्जन वन एवं गिरि कंदराओं में रह कर ही आत्मकल्याण करने का विधान था। जिस प्रकार राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार संतुलन बनाए रखने हेतु पृथ्वी का 33 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना चाहिए , ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था , जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का संतुलन बना रहे। उपनिषदों में लिखा है- हे अश्वरूप धारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है , नदियां तुम्हारी नाडि़यां हैं , पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखंड हैं , समग्र वनस्पतियां , वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं। ये सभी हमारे लिए शिव बनें। हम नदी , वृक्षादि को तुम्हारे अंग स्वरूप समझकर इनका सम्मान और संरक्षण करते हैं। भारतीय परम्परा में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्व है। पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया है , भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है , जो कई रोगों की रामबाण औषधि है। विल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक , पलाश , दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया। पूजा के कलश में सप्तनदियों का जल एवं सप्तभृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता था। सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन , सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना , गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना , मार्गों में वृक्ष लगवाना , कुएं खुदवाना , दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं। वैदिक ऋषि प्रार्थना करता है- पृथ्वी , जल , औषधि एवं वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों। ये शांतिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है , जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है।