Hindi, asked by teeshajindal111, 10 months ago

I want some onformation for the declamation compitition on topic.

बच्चे किसी मौल पे नहीं मिलते।

please be fast friends.
(want answer near about 3 or 4 pages.)​

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Answered by Anonymous
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हमारे आसपास ऐसे लोग भी हैं, जो शारीरिक या मानसिक रूप से फिट नहीं। उन्हें हिकारत भरी नजर से देखने या उन पर तरस खाने से बेहतर है, उन्हें सक्षम बनाने की कोशिश करना। मानसिक बीमारियां बचपन में ही साफ नज़र आने लगती हैं। लक्षणों पर गौर कर स्पेशल बच्चों की परेशानियों को कम कर उन्हें काबिल बनाया जा सकता है। कैसे, एक्सपर्ट्स से बात करके बता रही हैं गरिमा ढींगड़ा:  

सेरेब्रल पाल्सी को दिमागी लकवा भी कहते हैं। सेरेब्रल का मतलब है दिमाग और पाल्सी माने उस हिस्से में कमी आना जिससे बच्चा अपनी बॉडी को हिलाता-डुलाता है। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि दिमाग का जो हिस्सा बच्चे के पैर और हाथ को कंट्रोल करता है और उन्हें हिलाने-डुलाने में मदद करता है, उस पर लकवे का असर बढ़ जाता है। इसमें बच्चे को हाथ और पैरों में दिक्कत ज्यादा होती है।  

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इसके अलावा बोलने, सुनने, देखने और समझने में भी दिक्कत आ सकती है। ये तमाम दिक्कतें इस बात पर निर्भर करती हैं कि बच्चे के दिमाग का कितना हिस्सा प्रभावित हुआ है। यह स्थिति बच्चे के जन्म से पहले, जन्म के दौरान या बाद भी पैदा हो सकती है। कुछ मामलों में सुनने की क्षमता पर भी असर पड़ता है। उम्र के साथ-साथ दिक्कतें बढ़ती जाती हैं। बैठने में परेशानी होने के कारण ये बच्चे ज्यादातर समय लेटे रहते हैं, जिससे आंखों में भेंगापन और रोशनी कम हो सकती है। ऐसे बच्चों के लिए रोजाना के छोटे-छोटे काम निपटाना भी मुश्किल हो जाता है।  

क्या हैं लक्षण?  

- सामान्य बच्चों के मुकाबले विकास कम और देर से होना।  

- शरीर में अकड़न, बच्चे को गोद में लेने पर अकड़न बढ़ जाती है।  

- जन्म के तीन महीने के बाद भी गर्दन न टिका पाना।  

- जन्म के आठ महीने बाद भी बिना सहारे बैठ नहीं पाना।  

- बच्चे का अपने शरीर पर कंट्रोल न होना।  

- रोजाना के काम जैसे कि ब्रश करना, खाना-पीना आदि खुद न कर पाना।  

Answered by Anonymous
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Answer:

बाल दिवस पर बच्चों कि निष्पाप व निर्मल भावनाओं के लिए सप्रेम नमन. ” ” बच्चे मन के सच्चे ” किसी पुरानी फिल्म के गीत की ये पंक्तियाँ बहुत सीमा तक आज भी ये सन्देश देती हैं कि कुछ मामलों में तो बच्चों को ही गुरु मान लिया जाए तो श्रेष्ठ होगा.शिशु को ईश्वर का अनमोल वरदान,अनुपम कृति कहा गया है.बच्चा निष्पाप होता है हमारे दिए संस्कारों तथा प्रदान किये गए परिवेश के बीच वह बड़ा होता है.शिशु की निर्मल मुस्कान सारे परिवार को प्रसन्न रखती है.सही अर्थों में देखा जाए तो बच्चे को हम नहीं खिलाते अपितु बच्चा हमें खिलाता है.दादा-दादी,नाना-नानी माँ-पापा तथा अन्य सभी लोग अपने बचपन में लौट बच्चे के साथ तोतली भाषा में बात करते है,घोडा बन पीठ पर चढाते हैं,उलटी सीधी हरकतें कर,मजेदार चेहरे बना बच्चे को हंसाते है और उसकी हंसी में अपनी थकान,तनाव सब भूला देते हैं.बच्चा यदि किसी कारणवश हँसता नहीं तो पूरे परिवार के चेहरे पर उदासी छा जाती है.जो अपने अरमान दादा-दादी अपने बच्चों के बाल्यकाल में पूरे नहीं कर पाए थे इस समय पूरे किये जाते हैं.ये तो बात उन परिवारों की है जहाँ बच्चों के साथ माता-पिता के अतिरिक्त बड़े लोग भी है.जिन परिवारों के बच्चे दूर भी हैं वो` भी कभी वेबकैम के माध्यम से और कभी फ़ोन के माध्यम से उनकी मुस्कान देखने तथा हूँ हाँ सुनने के लिए उत्कंठित रहते हैं.है न बच्चा परिवार को बांधे रखने वाली प्यारी कड़ी.

अब १-२ उदाहरण बच्चे के भोलेपन तथा निर्मलता के बताती हूँ.मेरे बच्चे हिंदी माध्यम से ही पढ़े हैं,बच्चे जब छोटे थे स्कूल में उनको शिक्षा दी जाती थी ,बड़ों को प्रणाम करना चाहिए,चरणस्पर्श करना चाहिए.बेटे को लेने रिक्शा आती थी. बच्चों को मिली शिक्षा के अनुसार विद्यालय जाते समय बच्चे चरण स्पर्श कर ही जाते थे परिवार में सबके.रिक्शा में बैठने से पूर्व छोटा बेटा रिक्शा वाहक के भी चरण छूता था क्योंकि वो बड़ी उम्र के थे.और रिक्शा वाले भैया तो उसको गोद में उठाकर आशीर्वादों की झड़ी लगा देते थे.बाकी बच्चे जो थोड़े बड़े थे हंसी उड़ाते थे पर लम्बे समय तक उसका ये क्रम जारी रहा ,मैंने उसको कभी नहीं रोका परन्तु शायद थोडा बड़ा होने पर उसने भी नमस्ते से काम चलाना शुरू कर दिया.थोडा सा जो परिवर्तन आया बच्चे में वो परिवेश का प्रभाव था,परन्तु मुझको गर्व .है कि आज भी मेरे बच्चे सभी बड़ों से सम्मान पूर्वक ही बात करते हैं,चाहे वो सफाई कर्मचारी हो या ऑटो चालक.(आज शायद उन्ही आशीर्वाद के परिणामस्वरूप जीवन में सफल हैं बच्चे)

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