i want the explanation for the poem Main dhoondta tujhe tha IN hindi?
Answers
Answered by
9
इसमे अगर आप को आनन का अर्थ मुख या चेहरा पता हो‚ महाकाल का अर्थ मृत्यु और दमदमा का मतलब दम या शक्ति से परिपूर्ण होना पता हो‚ तो फिर अर्थ बिल्कुल साफ है। ऐसी कविताओं में अगर शब्दों का अर्थ पता हो तो कविता पूर्णतः समझ आ जाती है। आजकल हिंदी के कई कठिन शब्द साधारण पाठकों की जानकारी से बाहर हो सकते हैं। इसलिये कुछ कविताओं में मैं कठिन शब्दों के अर्थ भी दे देता हूं। कविता पढ़ने से भाषा सुधरती है। अगर आप हिंदी कविता प्रेमी हैं तो एक हिंदी शब्दकोष अवश्य खरीद लें । इससे बड़ी मदद मिलेगी। इन्टरनैट पर भी कुछ अच्छी ऑनलाइन हिन्दी शब्दकोश उपलब्ध हैं जिनसे आप लाभ उठा सकते हैं। जैसे कि इस लेख के अंत में दिये दो लिंक।
कविता का स्वरूप समय के साथ बदला है।मैंने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था नई दुनियां‚ पुरानी दुनियां। अगर आप सहित्य और कला के क्षेत्रों में हाल में ही आए बदलावों को समझना चाहें तो यह लेख आप अवश्य पढ़ें। पिछली शताब्दी में हिंदी कवि की अभिव्यक्तियों में बहुत परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन हिंदी के साहित्य में ही नहीं मगर विश्व की लगभग सभी भाषाओं के सहित्य में भी देखने को मिलता है। पुनः ऐसे परिवर्तन सहित्य मे ही नहीं पर कला के हर क्षेत्र में भी आए हैं और लगातार आ रहे हैं। कविताएं हर भाषा में जटिल होती जा रही हैं और कई बार पाठकों की समझ से बाहर भी। मेरी समझ में यह परिवर्तन स्वभाविक है और इसका मूल कारण मानव के अपने व्यक्तित्व का खुल कर सामने आना है। इसका कुछ खुलासा आवश्यक है। कुछ समय पहले तक समाज का हर व्यक्ति अपनेआप को समाज के एक अभिन्न अंग के रूप में देखता था और उसका अपना व्यक्तित्व दबा रहता था। पिछली कुछ शताब्दियों में धीरे धीरे मानव का निजी व्यक्तित्व समाज की जकड़ से बाहर आ रहा है और आज का आधुनिक व्यक्ति अपने आप को एक समाज से अलग थलग एक स्वाधीन इकाई के रूप में देख सकता है जो कि पुराने युग में संभव नहीं था। कवि के व्यक्तित्व में और उसकी काव्य अभिव्यक्ति में भी यह बदलाव साफतौर से झलकता है। पहले का कवि सामाजिक चेतनानुसार लिखता था और इसीलिये उसकी बात बाकी का समाज बाखूबी समझता था। कविताएं या तो प्रभु का गुण गान होतीं थीं‚ या किसी तरह के जीवन उपदेश‚ समाज व्यवस्था या फिर राजा माहराजाओं के कारनामों के विवरण। तुलसीदास का रामचरितमानस‚ कबीर के दोहों और मीरा या सूरदास के भजनों से ले कर श्यामनारायण पांडेय की हल्दीघाटी‚ और मैथिली शरण गुप्त की भारत भारती तक सभी काव्य अभिव्यक्तियां इसी सामाजिक युग की कविता के रूप माने जा सकते हैं। समाज नें इन कविताओं को पूर्णतः समझा और सराहा। इस युग की कविताएं छंद बद्ध रहीं और क्योंकि छंद मानव मस्तिष्क पर छप जाता है यह कविताएं जनता के दिलोदिमाग पर छा गईं। इन्हें बच्चों ने रटा और बूढ़ा होने तक याद रखा।आम जनता आज भी इन कविताओं को प्यार करती है और सराहती है।
पूरे विश्व में पिछली कुछ शताब्दियों से मानव व्यक्तित्व समाज की जकड़ से बाहर आया है। पश्चिमी देशों में यह कई शताब्दियों से हो रहा है पर भारत में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत नई है। समझिये लगभग एक शताब्दि पहले से। इस बदलाव के परिणाम स्वरूप कवियों ने अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियां कविता में संजोना प्र्रारंभ किया। जनता को जब इन कविताओं में अपने आप की भावनाओं को मुखरित होते देखा तो उन्हें यह कविताएं भी भाने लगीं। उदाहरण के तौर पर हरिवंश राए बच्चन की कविता “इस पार प्रिये तुम हो मधु है‚ उस पार न जाने क्या होगा”. को लीजिये। मृत्यु के बाद हमारा क्या होगा यह सभी सोचते हैं और इस कविता में उसकी अभिव्यक्ति मिली। इसी तरह जीवन में कुछ ठोस न कर पाने की व्यक्तिगत निराशा नीरज की कविता “कारवां गुजर गया‚ गुबार देखते रहे” में प्रगट हुई और इसने आम जनता को मोह लिया। षह पंक्तियां देखिये :
हो सका न कुछ मगर‚ सांझ बन गई सहर
वह उठी लहर कि डह गये किले बिखर–बिखर
और हम डरे–डरे‚ नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफन पड़े‚ मजार देखते रहे
कारवां गुजर गया‚ गुबार देखते रहे।
इस तरह की कविताएं पुराने सामाजिक युग की कविताओं से एक कदम आगे निकलीं क्योंकि इनमे व्यक्तिगत सोच की अभिव्यक्ति का आरंभ हु
Have a nice day!!
कविता का स्वरूप समय के साथ बदला है।मैंने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था नई दुनियां‚ पुरानी दुनियां। अगर आप सहित्य और कला के क्षेत्रों में हाल में ही आए बदलावों को समझना चाहें तो यह लेख आप अवश्य पढ़ें। पिछली शताब्दी में हिंदी कवि की अभिव्यक्तियों में बहुत परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन हिंदी के साहित्य में ही नहीं मगर विश्व की लगभग सभी भाषाओं के सहित्य में भी देखने को मिलता है। पुनः ऐसे परिवर्तन सहित्य मे ही नहीं पर कला के हर क्षेत्र में भी आए हैं और लगातार आ रहे हैं। कविताएं हर भाषा में जटिल होती जा रही हैं और कई बार पाठकों की समझ से बाहर भी। मेरी समझ में यह परिवर्तन स्वभाविक है और इसका मूल कारण मानव के अपने व्यक्तित्व का खुल कर सामने आना है। इसका कुछ खुलासा आवश्यक है। कुछ समय पहले तक समाज का हर व्यक्ति अपनेआप को समाज के एक अभिन्न अंग के रूप में देखता था और उसका अपना व्यक्तित्व दबा रहता था। पिछली कुछ शताब्दियों में धीरे धीरे मानव का निजी व्यक्तित्व समाज की जकड़ से बाहर आ रहा है और आज का आधुनिक व्यक्ति अपने आप को एक समाज से अलग थलग एक स्वाधीन इकाई के रूप में देख सकता है जो कि पुराने युग में संभव नहीं था। कवि के व्यक्तित्व में और उसकी काव्य अभिव्यक्ति में भी यह बदलाव साफतौर से झलकता है। पहले का कवि सामाजिक चेतनानुसार लिखता था और इसीलिये उसकी बात बाकी का समाज बाखूबी समझता था। कविताएं या तो प्रभु का गुण गान होतीं थीं‚ या किसी तरह के जीवन उपदेश‚ समाज व्यवस्था या फिर राजा माहराजाओं के कारनामों के विवरण। तुलसीदास का रामचरितमानस‚ कबीर के दोहों और मीरा या सूरदास के भजनों से ले कर श्यामनारायण पांडेय की हल्दीघाटी‚ और मैथिली शरण गुप्त की भारत भारती तक सभी काव्य अभिव्यक्तियां इसी सामाजिक युग की कविता के रूप माने जा सकते हैं। समाज नें इन कविताओं को पूर्णतः समझा और सराहा। इस युग की कविताएं छंद बद्ध रहीं और क्योंकि छंद मानव मस्तिष्क पर छप जाता है यह कविताएं जनता के दिलोदिमाग पर छा गईं। इन्हें बच्चों ने रटा और बूढ़ा होने तक याद रखा।आम जनता आज भी इन कविताओं को प्यार करती है और सराहती है।
पूरे विश्व में पिछली कुछ शताब्दियों से मानव व्यक्तित्व समाज की जकड़ से बाहर आया है। पश्चिमी देशों में यह कई शताब्दियों से हो रहा है पर भारत में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत नई है। समझिये लगभग एक शताब्दि पहले से। इस बदलाव के परिणाम स्वरूप कवियों ने अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियां कविता में संजोना प्र्रारंभ किया। जनता को जब इन कविताओं में अपने आप की भावनाओं को मुखरित होते देखा तो उन्हें यह कविताएं भी भाने लगीं। उदाहरण के तौर पर हरिवंश राए बच्चन की कविता “इस पार प्रिये तुम हो मधु है‚ उस पार न जाने क्या होगा”. को लीजिये। मृत्यु के बाद हमारा क्या होगा यह सभी सोचते हैं और इस कविता में उसकी अभिव्यक्ति मिली। इसी तरह जीवन में कुछ ठोस न कर पाने की व्यक्तिगत निराशा नीरज की कविता “कारवां गुजर गया‚ गुबार देखते रहे” में प्रगट हुई और इसने आम जनता को मोह लिया। षह पंक्तियां देखिये :
हो सका न कुछ मगर‚ सांझ बन गई सहर
वह उठी लहर कि डह गये किले बिखर–बिखर
और हम डरे–डरे‚ नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफन पड़े‚ मजार देखते रहे
कारवां गुजर गया‚ गुबार देखते रहे।
इस तरह की कविताएं पुराने सामाजिक युग की कविताओं से एक कदम आगे निकलीं क्योंकि इनमे व्यक्तिगत सोच की अभिव्यक्ति का आरंभ हु
Have a nice day!!
Similar questions