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हम तो बचपन में भी अकेले थे सिर्फ दिल की गली में खेले थे
एक तरफ मोर्चे थे पलकों के एक तरफ़ आँसुओं के रेले थे
थीं सजी हसरतें दूकानों पर ज़िन्दगी के अजीब मेले थे
आज ज़ेहन-ओ-दिल भूखों मरते हैं उन दिनों फ़ाके भी हमने झेले थे
ख़ुदकुशी क्या ग़मों का हल बनती मौत के अपने भी सौ झमेले थे
Javed Akhtar
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