(ii) ईर्ष्या किसे कहते हैं ? इससे मनुष्य को क्या हानि होती है?
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ईष्यालु मनुष्य दूसरों की अच्छाइयों तथा उपलब्धियों को देखकर जलते हैं। उनको अपने पास की चीजों में आनन्द नहीं आता है। वे ईर्ष्या की आग में स्वयं ही जलते हैं। ईर्ष्यालु मनुष्य विष की चलती-फिरती गठरी के समान होते हैं तथा पूरे समाज को प्रदूषित करते हैं।
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ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं है, प्रत्युत, इससे मनुष्य के आनंद में भी बाधा पड़ती है। जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता है, सामने का सूर्य उसे मद्धिम-सा दीखने लगता है, पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो, वे देखने योग्य ही नहीं हों।
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