Hindi, asked by dhruvsharmahello, 4 months ago

ईर्ष्याद्वेष से प्रेरित निंदा भी होती है लेकिन इसमें वह मज़ा नहीं- जो मिशनरी भाव
से निंदा करने में आता है | इस प्रकार का निंदक बड़ा दुःख होता है । ईर्ष्याद्वेष से -
चौबीसों घंटे जलता है और निंदा का जल छिड़ककर कुछ शांति अनुभव करता है ।
ऐसा निंदक बड़ा दयनीय होता है । अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की
क्षमता को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है । ईर्ष्याद्वेष से प्रेरित निंदक को-
कोई दंड देने की ज़रूरत नहीं है । वह निंदक बेचारा स्वयं दण्डित होता है । आप चैन
से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता | उसे और क्या दंड चाहिए ?
निरंतर अच्छे कार्य करते जाने से उसका दंड भी सख्त होता जाता है जैसे एक कवि
ने एक अच्छी कविता लिखी, ईर्ष्याग्रस्त निंदक को कष्ट होगा । अब अगर एक और
अच्छी लिख दी तो उसका कष्ट दोगुना हो जाएगा |
(क) ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निंदा तथा मिशनरी भाव से निंदा करने में क्या अंतर है ?
(ख) निंदक स्वयं ही किस प्रकार दंडित होता रहता है ?
(ग) निंदक को दंड देने की आवश्यकता क्यों नहीं होती ?
(घ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए |​

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Answered by rahulkusalkar349
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Answer:

ईर्ष्याद्वेष सl

ईर्ष्याद्वेष से प्रेरित निंदा भी होती है लेकिन इसमें वह मज़ा नहीं- जो मिशनरी भाव

से निंदा करने में आता है | इस प्रकार का निंदक बड़ा दुःख होता है । ईर्ष्याद्वेष से -

चौबीसों घंटे जलता है और निंदा का जल छिड़ककर कुछ शांति अनुभव करता है ।

ऐसा निंदक बड़ा दयनीय होता है । अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की

क्षमता को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है । ईर्ष्याद्वेष से प्रेरित निंदक को-

कोई दंड देने की ज़रूरत नहीं है । वह निंदक बेचारा स्वयं दण्डित होता है । आप चैन

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