Hindi, asked by aaditi1459, 10 months ago

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Answered by adityamanojsharma02
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Explanation:

1.क्या कोई संगीत अन्तिम घंटी से मधुर हो सकता है ? सारा विद्यालय रोमांचित हो जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि कारागार के द्वार खुल गये हों एवं वहां के निवासी उसे जल्दी से जल्दी छोड़ कर भागना चाहते हैं । मध्यावकाश के बाद की कक्षायें उबाऊ होती हैं ।

अन्तिम कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते तो अति हो जाती है । अध्यापक भी इस बात से परिचित हैं । वह भी विद्यार्थियों से छुटकारा पाना चाहते हैं । किन्तु हमारे लिये तो प्रत्येक क्षण सिर पर बोझ सा प्रतीत होता है । विद्यार्थी बार-बार घड़ी देखने लगते हैं । जब केवल पांच मिनट रह जाते हैं तो वह अपना बैग पैक करना प्रारम्भ कर देते हैं ।

वह ब्लैक-बोर्ड पर अध्यापक को पढ़ाते हुये देखते हैं पर उनके हाथ पैकिंग में लगे होते हैं । दिमाग काम करना बन्द कर देता है । वह रॉबोट् की तरह यन्त्रवत् काम करते हैं । अन्तिम घंटी की आवाज उन्हे नये उत्साह से भर देती है । उनकी आवाजें और चीखें गूँजने लगती हैं ।

बस के यात्रियों की तरह हर कोई पहले निकलना चाहता है । अध्यापक उन्हें सीडियों पर नियन्त्रित करने का प्रयत्न करते हैं । वह उन्हें पंक्तिबद्ध होकर चलने के लिये कहते हैं । विद्यार्थी कहना मान लेते हैं किन्तु झट से फिर पंक्ति तोड़ देते हैं ।

जैसे ही वह विद्यालय के प्रागण में पहुँचते हैं उनकी बातचीत और तेज हो जाती है । ऐसा लगता है वह सदा के लिये विद्यालय छोड़ कर चले जायेंगे । पांच मिनट के अन्दर पूरा विद्यालय खाली हो जाता है एवं विद्यालय हो जाता है निपट सुनसान ।

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2.मनुष्य जीवन परिस्थितियों का दास है. मनुष्य की आकांक्षायें बहुत होती हैं, परन्तु परिस्थिविश कभी-कभी उसकी सब आकांक्षाओं पर पानी फिर जाता है. कभी वह ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है जिसकी कि उसने कल्पना नहीं की थी. इस तरह जीवन में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं.

जीवन में परिवर्तन की बात सोचते-सोचते यकायक मेरा ध्यान एक मजदूर की ओर चला गया. आज से पांच वर्ष पहले वह और मैं एक कक्षा में पढ़ते थे उसके पिता एक किसान थे. खेती से अच्छी आमदनी होती थी. अच्छा खाता पीता परिवार था. भगवान के प्रकोपवश आज से चार वर्ष पहले उस गांव में बहुत बड़ी बाढ़ आई जिससे उनकी खेती-बाड़ी सब नष्ट हो गई. रहने का मकान भी नष्ट हो गया.

मकान के नीचे दबकर बैल भी मर गये. वे बेचारे बेघर-बार हो गये. कर्ज लेकर उसके पिता ने एक छोटा-सा मकान बनवा लिया. घर में खाने का दाना भी नहीं था. पेट भरने के लिए आधी जमीन गिरवी रखनी पड़ी. आधी से पूरे कुल का भरण-पोषण मुश्किल था. बड़ा परिवार और कम आमदनी इससे पूरा परिवार पेट भरने को भी मोहताज हो गया. लोगों ने उधार देना भी बन्द कर दिया. उस वर्ष फसल नष्ट हो गई और अपनी अगली फसल भी सर्दी के प्रकोप के कारण नष्ट हो गई.

अन्त में लाचार होकर वह छोटी उम्र में ही अपने दोस्तों के साथ मुम्बई गया. वहां जाकर उसने एक कपड़े की मिल में मजदूरी कर ली. इस प्रकार विधाता ने उसको एक मजदूर बनने पर विवश कर दिया. उसका जीवन एक मशीन बन गया है. सुबह जल्दी मिल जाना और शाम को घर आना और थकान के कारण घर आते ही सो जाना. उसकी व उसके परिवार की बड़ी ही दयनीय स्थति है.

सौ रूपये माहवार मजदूरी के मिलते हैं. उसके परिवार में पत्नी, चार लड़के व लड़कियां हैं. कुछ पैसे गांव में भेजकर घर वालों को भिखारी बनने और भूखे मरने से बचाता है. बेचारा कपड़े बना कर दूसरों को पहनाता है. परन्तु उसके शरीर को ढकने के लिए मैला-कुचैला एक मोटा कपड़ा है. अपने बच्चों को भी अच्छी तरह कपडे़ नही पहना सकता.

उसके जीवन में आशा और खुशियां नाममात्र को भी नहीं हैं. हमेशा चिंतित और गम्भीर अवस्था में बैठा हुआ भविष्य पर विचार करता रहता है. शायद उस बेचारे के जीवन में खुशी आयेगी ही नहीं और वह खुशी की कामना करता हुआ चिर शान्ति को प्राप्त कर लेगा.

Answered by vish143690
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Answer:

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Explanation:

मैं मजदूर हूँ। एक श्रमिक। मजदूरी करना ही मेरा धर्म है। मैं हिन्दू, मुस्लमान या ईसाई नहीं। मेरी पहचान है ‘श्रम’, मेरा कर्म है मजदूरी। मैं गरीब के घर पैदा हुआ, अभावों में पला बड़ा हुआ और अपनी किस्मत से लड़ता मजदूरी कर रहा हूँ। मेरा न तो कोई भविष्य है, न कोई बचपन, न जवानी! मैं कभी बिस्तर पर नहीं सोया। मैं मिट्टी में खेल कर बड़ा हुआ। मैं कभी विद्यालय नहीं गया। अंगूठा छाप हूँ मैं।

मजदूर का कोई नाम नहीं होता। पुल बने या घर, कारखाने में काम करूँ या खेत में, मुझे मजदूरी मिलती है। दैनिक मजदूरी। जिस दिन काम पर नहीं जाऊँगा, मैं और मेरे घरवाले भूखे सोयेंगे। पूरे परिवार के साथ मैं कार्यस्थल पर चला जाता हूँ। मेरी पत्नी भी मजदूरी करती है और बच्चे अन्य मजदूरों के बच्चों के साथ खेलते रहते हैं।

मौसम का हम पर कोई असर नहीं पड़ता। सर्दी हो, गर्मी हो या बरसात हम कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहते हैं। हम अन्न उत्पादन करते हैं और भूखे सोते हैं। घर बनाते हैं, इमारतें बनाते हैं और आकाश के तले खुले में सोते हैं। कपड़े की मिलों में काम करते हैं और हमारे परिवार के पास तन ढँकने को कपड़े नहीं होते।

हम पशु के समान हैं। हमें दुत्कार कर और मार कर काम लिया जाता है। हमारा शोषण किया जाता है। कभी कभी तो काम करने के बाद भी पैसे नहीं मिलते। हमारा परिवार बीवी बच्चे इलाज के बिना मर जाते हैं। हमारे बच्चे बड़े लोगों को देख कर आहें भरते हैं।  

हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चे स्वच्छ वातावरण में रहें, स्कूल जायें और साफ कपड़े पहनें। बीमार होने पर हमारा इलाज हो और हमारे पास भी इलाज के पैसे हों। हम किसी से बराबरी नहीं करना चाहते, किन्तु दिन रात पत्थर तोड़ने, बोझा ढोने और मेहनत के बाद हमें इतनी मजदूरी तो मिलनी ही चाहिये कि हम इज्जत की जिन्दगी जी सकें। पेट भर खा सकें। अब समय बदल रहा है। सरकार हमारे बारे में कुछ कानून बना रही है। मजदूर यूनियन हमारी मदद के लिये आगे आ रहे हैं।

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