Indira Gandhi utpann vadhavane Sathi sabhi muscle paddti kaun kaun the mahatva Badal ke liye
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इरविन ने यह अनुभव कर लिया कि आंदोलन को शक्ति से नहीं दबाया जा सकता। काँग्रेस के सहयोग के बिना कोई समस्या का समाधान नहीं हो सकता। अतः देश में अच्छा वातावरण बनाने के लिये 26 जनवरी,1931 को गाँधीजी को जेल से रिहा कर दिया गया।
तेज बहादुर सप्रु और श्री जयकर के प्रयत्नों से 17 फरवरी, 1931 को दिल्ली में गाँधीजी व इरविन के बीच बातचीत आरंभ हुई और 5 मार्च,1931 को दोनों में एक समझौता हो गया।
गांधी इरविन पैक्ट(Gandhi Irwin Pact) की शर्तें निम्नलिखित थी-
सरकार सभी अध्यादेशों और चालू मुकदमों को वापस ले लेगी।
सरकार उन सभी राजनीतिक बंदियों को मुक्त कर देगी, जिन्होंने हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया।
समुद्र के पास रहने वाले लोगों को सरकार बिना टैक्स के नमक बनाने और इक्ट्ठा करने की अनुमति देगी।
विदेशी कपङों,शराब और अफीम की दुकानों पर सरकार शांतिपूर्वक धरना रखने देगी और उसमें रुकावट उत्पन्न नहीं करेगी।
सरकार सत्याग्रहियों की जब्त की हुई संपत्ति वापस कर देगी।
काँग्रेस की ओर से गांधीजी ने निम्न बातें स्वीकार की-
कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर देगी।
पुलिस द्वारा किये गये अत्याचारों के बारे में निष्पक्ष जाँच की माँग छोङ दी जायेगी।
कांग्रेस दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।काँग्रेस उत्तरदायी शासन को, अल्पसंख्यकों,प्रतिरक्षा, विदेशी मामले तथा कुछ वित्तीय शक्तियों को अंग्रेजों के हाथ में रखते हुए स्वीकार कर लेगी।
कांग्रेस सब बहिष्करों को बंद कर देगी, लेकिन स्वदेशी का प्रचार जारी रखेगी।
गाँधी-इरविन पैक्ट की मिश्रित प्रतिक्रिया हुई। गाँधीजी ने इसे उचित बताया, क्योंकि पहली बार सरकार ने भारतीय नेताओं के साथ समानता के स्तर पर बातचीत की थी। किन्तु जवाहरलाल नेहरू व सुभाषचंद्र बोस गांधीजी के इस मूल्यांकन से सहमत नहीं थे, क्योंकि एक तरफ कांग्रेस के सामने पूर्ण स्वाधीनता का लक्ष्य था और दूसरी ओर गाँधीजी ने महत्त्वपूर्ण विषयों को अंग्रेजों के हाथों में रखना स्वीकार कर लिया था।
काँग्रेस के वामपंथी लोगों ने इसे सरकार के सामने आत्मसमर्पण बताया।काँग्रेस का युवा वर्ग इससे बहुत असंतुष्ट हुआ। गाँधीजी के तीन प्रसिद्ध क्रांतिकारियों- सरदार भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को न तो कैद से छुङवा सके और न उनकी फाँसी की सजा को आजन्म कारावास में बदलवा सके।
25 मार्च, 1931 को करांची में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उस समय सरदार भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव को फाँसी हो चुकी थी। इसलिए नवयुवकोें ने गांधी जी के विरुद्ध काले झंडों का प्रदर्शन किया।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन( dviteey golamej sammelan)
गाँधी- इरविन समझौते को ब्रिटिश सरकार अपनी पराजय मान रही थी। अतः इरविन के उत्तराधिकारी विलिंगडन ने हरसंभव तरीके से समझौते का उल्लंघन किया। गाँधीजी को चेतावनी देनी पङी कि, सरकारी दमन बंद नहीं किया गया तो वे लंदन नहीं जायेंगे।
गाँधीजी व विलंगडन में समझौता होने के बाद ही गाँधीजी दूसे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने लंदन गये।
दूसरा गोलमेज सम्मेलन 7 सितंबर,1931 को आरंभ हुआ। लेकिन ब्रिटिश सरकार के विरोधी रुख,डॉ.अम्बेडकर द्वारा दलित वर्गों के लिये कुछ स्थान आरक्षित करने की जिद तथा साम्प्रदायिक समस्या के कारण 1 दिसंबर,1931 को सम्मेलन किसी समस्या को हल किये बिना समाप्त हो गया।
गाँधीजी निराश होकर खाली हाथ भारत लौट आये।
सविनय अवज्ञा आंदोलन का पुनः प्रारंभ
महात्मा गांधी की अनुपस्थिति में लार्ड विलिंगडन ने अपना दमनकारी चक्र तेज कर दिया था।
जब महात्मा गाँधी भारत लौटे तो उत्तर प्रदेश के कृषि संबंधी झगङों के कारण जवाहरलाल नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया था।
बंगाल में सैनिक शासन लागू कर दिया गया था।
खान अब्दुल गफ्फार खाँ तथा उनके भाई को भी गिरफ्तार कर लिया गया था।
ऐसी गंभीर परिस्थितियों को हल करने के लिए महात्मा गाँधी ने लार्ड विलिंगडन से मुलाकात करनी चाही, किन्तु उसने मिलने से इंकार कर दिया।
अतः विवश होकर महात्मा गाँधी ने 3 जनवरी, 1932 को सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः आरंभ कर दिया।ब्रिटिश सरकार तो अवसर ढूँढ रही थी, अतः 4 जनवरी, 1932 को महात्मा गाँधी तथा काँग्रेस अध्यक्ष सरदार पटेल को गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया गया।
काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया।
हजारों व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
हरिजनों पर हिन्दुओं द्वारा किये गये अन्यायों पर पश्चाताप करने के लिए 8 मई, 1933 को गांधीजी ने 21 दिन का उपवास शुरू किया। सरकार ने उसी दिन गाँधीजी को जेल से छोङ दिया।
गाँधी ने अपने आपको हरिजन कल्याण के लिए लगाया, क्योंकि रेम्जे मेक्डोनल्ड के साम्प्रदायिक पंचाट के कारण सवर्ण हिन्दुओं व शूद्रों में एक खाई पैदा हो गई थी।
8 मई, 1933 को महात्मा गांधी ने जन-आंदोलन रोक दिया, किन्तु व्यक्तिगत सत्याग्रह चलता रहा।जनता का उत्साह भी कम हो गया था और आंदोलन में कमजोरी आ गई थी। इसलिए अप्रैल,1934 को महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन पूरी तरह से समाप्त कर दिया।
गाँधीजी द्वारा आंदोलन समाप्त किया जाना बहुत से नेताओं को बङा अप्रिय लगा और गांधीजी की नीति इन्हें बङी ढुलमुल दिखाई दी।