info on vikramaditya in hindi
yashawini:
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पिता द्वारा युवराज बनने के प्रस्ताव को विक्रम ने इसीलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि इस पद पर उनके ज्येष्ठ भ्राता भर्तृहरि का अधिकार था। इसे पिता ने अपनी अवज्ञा माना। वे क्रोधित हो उठे। लेकिन विक्रम अपने निश्चय पर अडिग रहे।
यह घटना संकेत थी कि न्याय के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाला होगा विक्रम।
राजपुरुषों की आसक्ति सौंदर्य के प्रति होना स्वाभाविक माना जाता है, लेकिन अपने जेष्ठ भ्राता के साथ हुए विश्वासघात ने विक्रमादित्य के मन को भीतर तक झकझोर दिया था। अपनी रानी, जिससे भर्तहरि अपार प्रेम करते थे, से मिले धोखे और फिर पश्चाताप के रूप में उसे आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य जीवन की राह दिखा दी। वे वैरागी हो गए। इसके बाद विक्रमादित्य को राज्यभार संभावना पड़ा। विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के बाद उज्जयिनी का सिंहासन न्याय का प्रतीक बन गया। इसी सिंहासन से जुड़े हैं वे प्रश्न जिन्हें पुतलियों ने राजा भोज से तब पूछा था, जब वे इस सिंहासन पर बैठना चाहते थे। एक किवदंती के अनुसार, विक्रमादित्य को यह सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया था, जिसमें स्वर्ग की 32 वे शापित अप्सराएं पुतलियां बनकर स्थित थीं, जिन्होंने अत्यंत निकट से देखती थी विक्रमादित्य की न्याय निष्ठा।
कभी-कभी गुण भी अहित का कारण बन जाते हैं। कुछ ऐसा ही महाराजा विक्रमादित्य के साथ भी हुआ। एक तांत्रिक अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए सर्वगुण संपन्न विक्रमादित्य की बलि देना चाहता था। वह तो भला हो बेताल का जिसने विक्रमादित्य की न्यायप्रियता से प्रसन्न होकर उसे सारा रहस्य बता दिया। बेताल यह जान गया था कि तांत्रिक के मरते ही वह भी मुक्त हो जाएगा।
यह घटना संकेत थी कि न्याय के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाला होगा विक्रम।
राजपुरुषों की आसक्ति सौंदर्य के प्रति होना स्वाभाविक माना जाता है, लेकिन अपने जेष्ठ भ्राता के साथ हुए विश्वासघात ने विक्रमादित्य के मन को भीतर तक झकझोर दिया था। अपनी रानी, जिससे भर्तहरि अपार प्रेम करते थे, से मिले धोखे और फिर पश्चाताप के रूप में उसे आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य जीवन की राह दिखा दी। वे वैरागी हो गए। इसके बाद विक्रमादित्य को राज्यभार संभावना पड़ा। विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के बाद उज्जयिनी का सिंहासन न्याय का प्रतीक बन गया। इसी सिंहासन से जुड़े हैं वे प्रश्न जिन्हें पुतलियों ने राजा भोज से तब पूछा था, जब वे इस सिंहासन पर बैठना चाहते थे। एक किवदंती के अनुसार, विक्रमादित्य को यह सिंहासन देवराज इंद्र ने दिया था, जिसमें स्वर्ग की 32 वे शापित अप्सराएं पुतलियां बनकर स्थित थीं, जिन्होंने अत्यंत निकट से देखती थी विक्रमादित्य की न्याय निष्ठा।
कभी-कभी गुण भी अहित का कारण बन जाते हैं। कुछ ऐसा ही महाराजा विक्रमादित्य के साथ भी हुआ। एक तांत्रिक अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए सर्वगुण संपन्न विक्रमादित्य की बलि देना चाहता था। वह तो भला हो बेताल का जिसने विक्रमादित्य की न्यायप्रियता से प्रसन्न होकर उसे सारा रहस्य बता दिया। बेताल यह जान गया था कि तांत्रिक के मरते ही वह भी मुक्त हो जाएगा।
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विक्रमादित्य उज्जैन के अनुश्रुत राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)।
हिन्दू शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है।
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