इस लॉक डाउन में प्रकृति के बदलते स्वरूप पर अपने विचार (250- 300) शब्दों में लखिए
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लॉकडाउन से पर्यावरण को हुआ लाभ बरकरार रहे, इसके लिए वर्क फ्रॉम होम बढ़ाया जाये
समय आ गया है कि केन्द्र और राज्य की सरकार इस बात पर गंभीरता से मंथन करें कि ऐसे कौन-कौन से उपाए किए जाएं जिससे अपनी दिनचर्या या रोजी-रोटी चलाने के लिए लोगों को कम से कम सड़क पर आना पड़े। एक अनुमान के अनुसार देश की करीब 25 से 30 प्रतिशत आबादी को अपना कामकाज निपटाने के लिए सिर्फ इसलिए सड़क पर इधर से उधर दौड़ाना पड़ता हैं क्योंकि उसके पास तकनीकी ज्ञान काफी कम है या नहीं है। यही वजह है जहां कई विकसित और विकाशसील देशों में जो काम लोग घरों में बैठे-बैठे ऑनलाइन निपटा देते हैं, उसी काम को करने के लिए आम भारतीय को सरकारी आफिसों, बैंकों, मेडिकल स्टोरों, फल-सब्जी और राशन की दुकानों आदि के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इसके चलते आम भारतीय को समय, श्रम और पैसा तीनों बर्बाद करना पड़ता है। वहीं सरकार को बेकार में ही कई सुविधाओं की व्यवस्था करनी पड़ जाती है। सड़क पर बेतहाशा दौड़ती गाड़ियों के लिए मंहगा ईंधन आयात करना पड़ता है। सड़क पर भीड़ बढ़ती है, जिसके कारण प्रदूषण बढ़ता है। प्रदूषण बढ़ता है तो इसका विपरीत प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है, जिसके लिए सरकार को ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं जुटानी पड़ जाती हैं। इन सबको लॉकडाउन से जोड़कर देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि लॉकडाउन के दौरान देश में दिल के मरीजों की संख्या में 75 प्रतिशत तक कमी आ कोरोना महामारी ने हमें यह भी समझा दिया है कि यदि हमें पृथ्वी को बचाना है तो उसके संरक्षण के लिए हमें कोई कारगर नीति बनानी ही होगी। पेड़-पौधों, जंगलों और जानवरों को बचाना एवं संरक्षण देना होगा। जीवनदायिनी नदियों को प्राकृतिक तौर पर आगे बढ़ने के लिए संरक्षण दिया जाए, उसमें गिरने वाले नालों और फैक्ट्रियों के गंदे पानी पर रोक लगाई जाए। सिर्फ कानून बनाकर यह काम नहीं हो सकता है, इसके लिए जनता को
खैर, बाते आगे बढ़ाई जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़ी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 90 फीसदी आबादी प्रदूषित हवा में सांस ले रही है। कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण विशेषज्ञ डेविड बोयड ने भी अपने एक वक्तव्य में कहा था कि करीब छह अरब लोग नियमित रूप से घातक प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं, जिससे उनका जीवन और स्वास्थ्य जोखिम भरा है। इसके बावजूद इस महामारी पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। डेविड बोयड के अनुसार दुनिया में हर घंटे 800 लोग मर रहे हैं, जिनमें से अनेक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं झेलने के कई वर्षों बाद मर रहे हैं। कैंसर, सांस की बीमारियां और दिल के रोगों में प्रदूषित हवा के कारण लगातार वृद्धि हो रही है। वायु प्रदूषण टाइप-2 मधुमेह को भी बढ़ा रहा है। वायु में मौजूद पीएम2.5 कण टाइप-2 मधुमेह के मामलों और मृत्यु को बढ़ाता है। इसे उच्च रक्तचाप के लिए भी जिम्मेदार माना गया है। हमारे देश में वायु प्रदूषण के कारण सांस की बीमारियों, हृदय की बीमारियों, हृदयाघात, फेफड़ों के कैंसर के कारण समय पूर्व मृत्यु की दर बढ़ती जा रही है। पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में लगातार वाहनों की संख्या बढ़ने के कारण प्रदूषण और सांस से संबंधित विभिन्न बिमारियां पनप रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ डेविड बोयड के अनुसार स्वच्छ हवा प्राप्त करना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।
लॉकडाउन के बाद जो भारत की नई तस्वीर उभर कर समाने आई है, उससे यह संकेत भी मिलते हैं कि भारत के पास पर्यावरण को बचाने के लिए तमाम ‘नुस्खें’ मौजूद हैं। इन नुस्खों को देश की ज्यादा से ज्यादा आबादी को ऑनलाइन सुविधाओं से जोड़ कर परखा जा सकता है। स्वच्छ हवा सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रयास किए जाने की जरूरत है। इनमें वायु गुणवत्ता एवं मानव स्वास्थ्य पर उसके प्रभावों की निगरानी, वायु प्रदूषण के स्रोतों का आकलन और जन-स्वास्थ्य परामर्शों समेत अन्य सूचनाओं को सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध कराना शामिल है। यह कटु सत्य है कि वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण वाहनों से निकलने वाला जहरीला धुआं है।
वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारण वाहनों से निकलने वाला धुआं है। इसमें कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन तथा सस्पेंडेड पर्टिकुलेट मैटर जैसे खतरनाक तत्व एवं गैसें होती हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड जब सांस के माध्यम से शरीर के अंदर पहुंचता है तो वहां हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन नामक तत्व बनाता है। इस तत्व के कारण शरीर में ऑक्सीजन का संचार सुचारू रूप से नहीं हो पाता है। नाइट्रोजन मोनोऑक्साइड एवं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड भी कम खतरनाक नहीं हैं। नाइट्रोजन मोनोऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड की तरह ही हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा घटाता है। वाहनों से निकलने वाला हाडड्रोकार्बन अल्प मात्रा में भी पौधों के लिए हानिकारक है। सस्पेंडेड पर्टिकुलेट मैटर छोटे-छोटे कणों के रूप में विभिन्न स्वास्थ्यगत समस्याएं पैदा करते हैं। ऐसे तत्व हमारे फेफड़ों को नुकसान पहुंचाकर सांस संबंधी रोग उत्पन्न करते हैं। वाहनों से फैलने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए जरूरी है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बेहतर बनाया जाए, ताकि लोगों की निजी वाहनों के प्रयोग की आदत को कम किया जा सके। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए दिल्ली की केजरीवाल सरकार ऑड-ईवन का फार्मूला लेकर आई थी, जो प्रयोग ज्यादा सफल नहीं रहा।
दरअसल, देश की जनता के दिमाग से जब तक यह बात नहीं