Itihas Kaal vibhajan aur namkaran Ki avashyakta Kyon padati Hai
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हिन्दी साहित्य के इतिहास के चार काल हैं-
हिन्दी-साहित्य के इतिहास-ग्रन्थोंम में काल-विभाजन के लिये प्राय: चार पद्धतियों का अवलम्ब लिया गया है। पहली पद्धति के अनुसार, सम्पूर्ण इतिहास का विभाजन चार काल खण्डों में किया गया है
- आदिकाल
- भक्तिकाल
- रीतिकाल
- आधुनिककाल
दूसरे क्रम के अनुसार केवल तीन युगों की कल्पना ही विवेकसम्मत है
- आदिकाल
- मध्यकाल
- आधुनिककाल
भारतीय हिन्दी परिषद के इतिहास में इसे ही स्वीकार किया गया है और डा० गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने वैज्ञानिक इतिहास में इसी का अनुमोदन किया है। इसके पीछे तर्क यह है कि मध्यकालीन साहित्य की चेतना प्राय: एक है: उन्नीसवीं सदी के मध्य में या उसके आगे-पीछे उसमें कोई ऎसा मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ जिसके आधार पर युग-परिवर्तन की मान्यता सिद्ध की जा सके। संत-काव्य, प्रेमाख्यान काव्य, रामकाव्य, कृष्णकाव्य, वीरकाव्य, नीतिकाव्य, रीतिकाव्य आदि की धाराएँ पूरे मध्यकाल में पाँच शताब्दियों तक अखण्ड रूप से प्रवाहित होती रहीं, उनमें मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। तीसरी पद्धति साहित्य का विभाजन विधा-क्रम से करती है। इसका आधार यह है कि समस्त साहित्य-राशि का एकत्र अध्ययन करने की अपेक्षा कविता तथा गद्य-साहित्य की विविध विधाओं के इतिहास का वर्गीकृत अध्ययन साहित्य-शास्त्र के अधिक अनुकूल है। इनके अतिरिक्त एक पद्धति और है जो शुद्ध कालक्रम के अनुसार वस्तुगत विभाजन को ही अधिक यथार्थ मानती है। इसके प्रवक्ताओं का तर्क है कि किसी विचारधारा अथवा साहित्यिक दृष्टिकोण का आरोपण करने से परिदृष्य विकृत हो जाता है और यथार्थ-दर्शन में बाधा पड़ती है अत: स्वाभाविक कालक्रम के अनुसार ही सामग्री का विभाजन करना समीचीन है।
जार्ज ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन करने का प्रयास किया। काल-विभाजन पर अपनी सम्मति प्रकट करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा "सामग्री को यथासम्भव काल-क्रमानुसार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। वह सर्वत्र सरल नहीं रहा है और कतिपय स्थलोँ पर तो यह असम्भव सिद्ध हुआ है। अतएव वे कवि, जिनके समय मैँ किसी भी प्रकार स्थिर नहीं कर सका, अन्तिम अध्याय में...दे दिये गये हैँ।....प्रत्येक अध्याय सामान्यतया एक काल का सूचक है। भारतीय भाषा-काव्य के स्वर्णयुग १६वीं १७वीं शती पर मलिक मुहम्मद की कविता से प्रारम्भ करके व्रज के कृष्णभक्त कवियोँ, तुलसीदास के ग्रन्थों और केशव द्वारा स्थापित कवियोँ के रीति सम्प्रदाय को सम्मिलित करके कुल ६ अध्याय हैं जो पूर्णतया समय की दृष्टि से विभक्त नहीं हैं, बल्कि कवियोँ के विशेष वर्गोँ की दृष्टि से बंटे हैं।" अपका काल-विभाजन कुछ इस प्रकार है-
चारणकाल ७०० से १३०० ई. तक
पन्द्रहवीं शती का पुनर्जागरण
जायसी की प्रेम कविता
व्रज का कृष्ण सम्प्रदाय
मुगल दरबार
तुलसीदास
रीति सम्प्रदाय
तुलसीदास के अन्य परवर्ती
अठारहवीं शताब्दी
महारानी विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान
ग्रियर्सन के इस वर्गीकरण में दूसरे, पाँचवें, नौवें तथा दसवें नामकरण में ऐतिहासिकता का प्राधान्य है, साहित्यिकता का नहीं; जबकि साहित्य इतिहास के काल-विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियोँ पर ही बल होना चाहिये।
इसके उपरान्त मिश्रबन्धुओँ ने "मिश्रबन्धु विनोद" में काल-विभाजन का प्रयास किया, जो जार्ज ग्रियर्सन के काल-विभाजन की तुलना में कहीं अधिक प्रौढ़, विकसित तथा तर्कसँगत है-
आरम्भिक काल ७०० से १४४४ वि० तक।
माध्यमिक काल १४४५ से १६८० वि० तक।
अलँकृत काल १६८१ से १८८९ वि० तक।
परिवर्तन काल १८९० से १९२५ वि० तक।
वर्तमान काल १९२६ से अबतक।
मिश्रबन्धुओँ का काल-विभाजन पद्धति की दृष्टि से सम्यक एवँ सरल है परन्तु नामकरण में एकरूपता का अभाव है, क्योँकि "अलँकृत काल" नाम साहित्य की आन्तरिक प्रवृत्ति अथवा वर्ण्यविषय अथवा कवियोँ के सम्प्रदाय विशेष का द्योतन करता है; जबकि पहला, दूसरा और चौथा नाम विकासावस्था को व्यक्त करता है तथा अन्तिम युग विशेष का सँकेतमात्र ही देता है। इतना ही नहीं वरन अपभ्रँश युग को हिन्दी साहित्य का आदिकाल मानना भाषा वैज्ञानिक भूल भी है।
इसके उपरान्त १९२० ई. में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार कालों में विभक्त कर उनका नामकरण इस प्रकार है-
वीरगाथा काल
भक्तिकाल
रीतिकाल
आधुनिक काल
इनमें से भक्तिकाल और आधुनिककाल को तो यथावत स्वीकार कर लिया गया है, परन्तु वीरगाथा काल और रीतिकाल के विषय में विवाद रहा है। जिन वीरगाथाओँ के आधार पर शुक्लजी ने "वीरगाथा काल" का नामकरण किया है, उसमें से कुछ अप्राप्य हैं और कुछ परवर्ती काल की रचनाएँ हैं। इनके अतिरिक्त जो साहित्य इस कालावधि में लिखा गया है, उसमें सामन्तीय और धार्मिक तत्वोँ का प्राधान्य होने पर भी कथ्य और माध्यम के रूपोँ की ऎसी विविधता और अव्यवस्था है कि किसी एक प्रवृत्ति के आधार पर उसका सही नामकरण नहीं किया जा सकता। ऎसी स्थिति में "आदिकाल" जैसा निर्विशेष नाम, जो भाषा और साहित्य की आरम्भिक अवस्था मात्र का द्योतन करता है, अधिक समीचीन है। रीतिकाल के संदर्भ में मतभेद सीमित है।
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