जाको धन धरती हरी, ताहि न लीजै संग । ओ संग राखे ही बनै, तो करि राखु अपंग ॥
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जाको धन, धरती हरी, ताहि न लीजै संग।
ओ संग राखै ही बनै, तो करि राखु अपंग॥
तो करि राखु अपंग, भीलि परतीति न कीजै।
सौ सौगन्दें खाय, चित्त में एक न दीजै॥
कह गिरिधर कविराय, कबहुँ विश्वास न वाको।
रिपु समान परिहरिय, हरी धन, धरती जाको॥
Answer: यह दोहा संत कबीर जी का है।
Explanation: इस दोहे में संत कबीर जी ने एक महत्वपूर्ण सन्देश दिया है कि हमें माल-धन का आसक्तिमय होना नहीं चाहिए। अगर हम धन को धरती हुए पाएं हैं तो हमें उससे जुड़े लोगों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि जो इंसान धन के आश्रय से अपनी सभी जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करता है, वह अपंग बन जाता है। इसलिए हमें धन के मोह से बचकर अपने आपको दूसरों की सहायता करने में लगाना चाहिए।
यह दोहा संत कबीर जी का है जिसमें वे हमें माल-धन की अहमियत से ऊपर उठकर अपने आप से और दूसरों से मिलने वाली सहायता की महत्वता को समझाते हैं। इस दोहे का बावर्थ यह है कि हमें धन की प्राप्ति में नहीं लगना चाहिए बल्कि हमें दूसरों की सहायता करने में लगना चाहिए।
धन की प्राप्ति से हमारे स्वार्थ और आसक्ति का भाव बढ़ता है, जो आने वाले समय में हमें अपंग बना सकता है। जबकि दूसरों की सहायता करने से हम एक बेहतर समाज की ओर अग्रसर होते हैं जो सभी के लिए उन्नति और समृद्धि की दिशा में आगे बढ़ता है।
दोहे, एक हिंदी शब्द है जिसका अर्थ छंद है जिसमें पद्य की दो क्रमिक पंक्तियाँ होती हैं; विकिपीडिया के अनुसार कबीर दास 15वीं सदी के एक भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे, जिनके लेखन ने हिंदू धर्म के भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया।
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