Hindi, asked by janakraj7536, 10 months ago

जो लोग पीछे थे तुम्हारे बढ़ गए है बड़ रहे,पीछे पड़े तुम दैव के सिर दोष अपना मढ़ रहे !
पर कर्म तैल बिना कभी विधि दीप जल सकता नहीं,है दैव क्या? सांचे बिना कुछ आप ढल सकता नहीं ||

Answers

Answered by anamika4235
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शास्त्रों और पुस्तकों की क्या बात कही जाए? एक-दो या दस-बीस हों तब न? यहाँ तो जितने मुनि उतने मत हैं - जितने लेखक उनसे कई गुना किताबें हैं। हिंदुओं के ही घर में एक व्यास के नाम से जानें सैकड़ों पोथियाँ हैं। खूबी तो यह कि वह भी एक दूसरे से नहीं मिलती हैं! उनमें भी परस्पर विरोधी बातें सैकड़ों हैं, हजारों हैं। तब किसे मानें किसे न मानें? और जब एक की ही लिखी बातों की यह हालत है, तो विभिन्न लेखकों का खुदा ही हाफिज! उनके वचनों में परस्पर विरोध होना तो अनिवार्य है! भिन्न-भिन्न दिमागों से निकले विचार एक हों तो कैसे? सभी दिमाग एक हों तो काम चले। मगर यह तो अनहोनी बात ठहरी। फलत: शास्त्रों के द्वारा किसी काम के भले-बुरेपन का निर्णय भी वैसा ही समझिए।इसका मतलब समझना होगा। हरेक कर्म के करने वाले का वश परिस्थिति पर तो होता नहीं कि वह विद्वान हो, विद्वानों के बीच में ही रहे, पढ़ने-लिखने की पूरी सामग्री उसे मिले, उसकी बुद्धि खूब ही कुशाग्र हो, वह भूल कभी करी न सके। ऐसा होने पर वह मनुष्य ही क्यों हो? और उसके कर्तव्याकर्तव्य का झमेला ही क्यों उठे? वह तो सब कुछ जानता ही है। एक बात और। वह शास्त्रों के वचनों के अनुसार ही काम करें, यह तो ठीक है। मगर सवाल तो यह है न, कि उन वचनों का अर्थ वह समझे कैसे? किसकी बुद्धि से समझे? कल्पना कीजिये कि मनु ने एक वचन कर्तव्य के बारे में लिखा है जिसका अर्थ समझना जरूरी है। क्योंकि बिना अर्थ जाने अमल होगा कैसे? तो वह अर्थ मनु की ही बुद्धि से समझा जाए या करने वाले की अपनी बुद्धि से? यदि पहली बात हो, तो वह ठीक-ठीक समझा तो जा सकता है सही, इसमें शक नहीं। मगर करने वाले के पास मनु की बुद्धि है कहाँ? वह तो मनु के ही पास थी और उनके साथ ही चली गई।

Answered by shreekant16
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Answer:

कर्म ही पूजा है ।

Explanation:

कर्म ही पूजा है । परिश्रम ही सफलता की कुंजी है ।

एक कहावत है - नाच न जाने आंगन टेढ़ा । अर्थात हमें नाचने नहीं आता तो अपनी दोष छुपाने के लिए आंगन को ही टेढ़ा बोल देते हैं । जबकी नाचने की कोशिश किये बिना हम नाचना नहीं सीख सकते । कहने के आशय हैं कि बिना परिश्रम के हम अंगूर की चाहत रखते हैंं और जब हम अंगूर नहीं प्राप्त कर पाते तो अंगूर खट्टे हैंं कह के निकल लेना ही श्रेयकर समझने लगते है । जबकि जरूरी ये जानना हैंं कि हममें क्या चूक रह गई कि हम अंगूर हासिल करने में असमर्थ रहे ।

जिस प्रकार दिया में तेल के आभाव में दिया जल नहीं सकता । बिना सांचे के कोई मिट्टी का बर्तन या कोई चीज सुंदर बन नहीं सकती । ठीक उसी प्रकार बिना परिश्रम और अनुशासन के हम सफलता की सीढी नहीं चढ़ सकते ।

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