जैन और बौद्ध धर्म का अविर्भाव कब हुआ ?
Tᴏɪ Mᴇʟᴇ Sᴇ Bᴀᴀᴛ Kʀᴇɢᴀ
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पिछली शताब्दी के सांस्कृतिक जागरण का एक परिणाम था बौद्धधर्म के विषय में आधुनिक जानकारी का विकास। भारतीयों के लिए यह एक विलुप्त गौरव और महिमा का प्रत्यभिज्ञान था, पाश्चात्य देशों के लिए अपूर्व उपलब्धि। दक्षिण, मध्य और पूर्व एशिया के बौद्ध देशों के लिए भी विद्या और साहित्य के इस उद्धार ने नवीन परिष्कार और प्रगति की ओर संकेत किया। टर्नर और फाउसबाल, चाइल्डर्स और ओल्देनबर्ग, राइज डैविड्स और श्रीमती राइज डेविड्स, धर्मानंद कोसंबी और बरुआ, एवं अन्यान्य विद्वानों के यत्न से पालि भाषा का परिशीलन अपने आधुनिक रूप में प्रकांत और विकसित हुआ। बर्नूफ, कर्न, मैक्समूलर और सिलवाँ लेवी, हरप्रसद शास्त्री और राजेंद्रलाल मित्र आदि के प्रयत्नों से लुप्त प्राय बौद्ध संस्कृत साहित्य का पुनरुद्धार संपन्न हुआ। क्सोमा द कोरोस, शरच्चंद्र दास और विद्याभूषण, पूसें और श्चेरवात्स्की आदि ने तिब्बती भाषा, बौद्ध न्याय, सर्वास्तिवादी अभिधर्म आदि के आधुनिक ज्ञान का विस्तार किया। जेम्स प्रिंसेप, कनिंघम और मार्शंल, स्टाइन, फ्यूशेर और कुमारस्वामी आदि विद्वानों ने बौद्ध पुरातत्व और कलावशेषों की खोज और समय का दिक्प्रदर्शन किया। नाना भाषाओं और पुरातत्व के गहन परिशीलन के द्वारा शताधिक वर्षों के इस आधुनिक प्रयास ने बौद्ध धर्म की जानकारी को एक विशाल और जटिल कलेवर प्रदान किया है एवं इस तथ्य को प्रदर्शित किया है कि बौद्ध धर्म का सार और सार्थकता अपने में कितनी व्यापकता और सूक्ष्मता रखते हैं।
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