जैन संप्रदाय एवं बौद्ध संप्रदाय की किन्ही तीन समानताओं को स्पष्ट कीजिए
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जैन एवं बौद्ध दोनों धर्म-दर्शन श्रमण संस्कृति के परिचायक हैं। इन दोनों में श्रम का महत्त्व अंगीकृत है। ‘श्रमण’ शब्द का प्राकृत एवं पालिभाषा में मूलरूप ‘समण’ शब्द है, जिसके संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में तीन रूप बनते हैं - १. समन - यह विकारों के शमन एवं शान्ति का सूचक है। २. समन- यह समताभाव का सूचक है। ३. श्रमण - यह तप, श्रम एवं पुरुषार्थ का सूचक है। श्रमण दर्शनों में ये तीनों विशेषताएँ पायी जाती है।
दोनों धर्मदर्शनों में साम्य- श्रमण संस्कृति के परिचायक ये दोनों धर्म-दर्शन वैदिक कर्मकाण्ड में विश्वास नही रखते, सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं मानते। वैदिक देवी-देवीताओं को स्वीकार नहीं करते। इन दोनों का विश्वास मनुष्य के पुरुषार्थ पर है। दोनों की मान्यता है कि मनुष्य स्वयं अपने कारणों से दुःखी या सुखी होता है। मनुष्य में ही यह क्षमता है कि वह अपने पुरुषार्थ के द्वारा दुःख-मुक्ति को प्राप्त कर सकता है अथवा नरक के घोर दुःखों को भोग सकता है। ये दर्शन व्यक्ति की दृष्टि को सम्यक बनाने पर बल प्रदान करते हैं। इनमें लौकिक अभ्युदय की अपेक्षा निर्वाण को अधिक महत्त्व दिया गया है। हाँ, लौकिक अभ्युदय यदि निर्वाण में सहायक होता है तो वह स्वीकार्य है। उदाहरण के लिए मनुष्यभव, धर्मश्रवण, शुभविचार आदि लौकिक अभ्युदय निर्वाणप्राप्ति में साधक बन सकते हैं। अतः इनका होना अभीष्ट है। किन्तु आध्यात्मिक उन्नयन से रहित लौकिक अभ्युदय की अभिलाषा धर्मों में प्रतिष्ठित नहीं है। लौकिक अभ्युदय में यशःकीर्ति की आकांक्षा को दोषपूर्ण माना गया है। वैदिकधर्म जहाँ अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को लक्ष्य में रखते हैं तथा धर्म उसे ही कहते हैं जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों की सिद्धि हो, जबकि जैन और बौद्ध धर्म धर्माराधन का लक्ष्य, निःश्रेयस, मोक्ष अथवा निर्वाण को स्वीकार करते हैं।
वर्ण, जाति आदि के आधार पर मानवसमुदाय का विभाजन एवं इन आधारों पर उनको उच्च या निम्न समझना जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों को स्वीकार्य नहीं है। दोनों धर्म-दर्शनों के साहित्य में जातिव्यवस्था का जमकर खण्डन हुआ है तथा धर्म का द्वार सबके लिए समानरूप से खोला गया है।
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