जेपी और लोहिया के समाजवाद में अंतर बताइए
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यद्यपि आंबेडकरवादी और समाजवादी आंदोलनों ने भारतीय समाज का काफी हद तक प्रजातांत्रिकरण किया है[1] परंतु जातिप्रथा को उखाड़ फेंककर एक समतावादी समाज के निर्माण की उनकी परियोजना अभी भी अधूरी है। प्रजातांत्रिकरण की बहुचर्चित दूसरी लहर[2] के दो दशक बाद, ऐसा लगता है कि सामाजिक न्याय की राजनीति और नीतियां एक बड़े गतिरोध का सामना कर रही हैं (यादव, 2009:1)। सन् 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का जो हश्र हुआ, वह भारत में नीची जाति की राजनीति में घुस आईं बुराईयो को प्रतिबिंबित करता है। ये बुराईयां इस अर्थ में मूलभूत और महत्वपूर्ण है कि वे सामाजिक न्याय के विचार को ही नकार करने वाली है। आज दलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमानों जैसे विभिन्न सामाजिक समूह और समुदाय अगर एक-दूसरे के विरूद्ध नहीं तो एक-दूसरे से अलग बातें तो कर ही रहे हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति अपने मूल सामाजिक आधार को विस्तार नहीं दे सकी है (उपरोक्त, 2-3)। हिन्दुत्व की शक्तियों की जीत न केवल सामाजिक न्याय के विचार और उसकी नींव को कमजोर करने वाली है, वरन् वह उस ‘इज्जत‘ को भी मिटाने वाली है जिसे स्वतंत्रता के बाद के भारत में नीची जातियों ने कठिन प्रयासों से अर्जित किया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि एक व्यापक गठबंधन का निर्माण किया जाए। इस गठबंधन का उद्धेश्य केवल चुनाव जीतना नहीं होना चाहिए। उसे भेदभाव, शोषण और अपमान के विरूद्ध संघर्ष और प्रजातांत्रिक सिद्धांतों और मूल्यों के संवर्धन के प्रति प्रतिबद्ध भी होना चाहिए।[3]
पत्नी सविता के साथ डा. आम्बेडकर
हमें आज बहुजन राजनीति के चिंतकों और उसके आधारभूत ग्रंथों की ओर लौटना होगा और इस प्रश्न पर विचार करना होगा कि अंधकार के इस दौर में हम सामाजिक न्याय की राजनीति को किस तरह पुनर्जीवित कर सकते हैं। लोहिया और डा. बी.आर. आंबेडकर के विचार क्रमशः नीची जातियों और दलितों के आंदोलनों की प्रेरक शक्ति रहे हैं। यह अत्यंत आश्चर्यजनक और विडंबनापूर्ण है कि इन दोनों नेताओं को अकादमीशियनों[4] और इन दोनों के तथाकथित चुनावी गुटों[5] ने छोटे-छोटे घेरों में कैद कर दिया है। लोहिया और आंबेडकर समकालीन थे और जातिवाद का विरोध दोनों का एजेंडा था। यह आश्चर्यजनक है कि इसके बावजूद, दोनों में वैचारिक समानताएं ढूढ़ने के बहुत कम प्रयास हुए हैं। क्या इन दोनों के विचारों के अति-सरलीकरण और उनके मतभेदों को नजरअंदाज किए बगैर, उनकी सोच में कोई सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है? क्या इन दोनों व्यक्तित्वों की विचारधारात्मक धाराओं के मिलन से न्याय और समानता का एक नया, स्वदेशी सिद्धांत उभर सकता है?
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