जैसे " मानव - प्यार " ,वैसे "प्राणी- ?
स्नेहा
उत्थान
उपकार
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i don't understand but sanaha
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मानव प्यार की जटिलताओं को विवेचित करती लगातार यह तीसरी पोस्ट इस श्रृखला की फिलहाल अंतिम कड़ी है ! इश्क से दीगर मसले और भी तो हैं ! प्रेम के जोडों में कई कुदरती अवरोधक (जिनकी चर्चा पिछले पोस्ट में हुयी है ) अनुपयुक्त साथी की पहचान कर उन्हें आगे बढ़ने से रोक देते हैं ताकि अनचाहे गर्भ धारण और बाद की झंझटों ,बच्चों के लालन पालन के साझे बोझ को उठाने की समस्याओं से बचा जा सके !
दिक्कत है कि हमारे कई सामाजिक रीति रिवाज जो दरअसल अनुपयुक्त जोडों के मिलन के निवारण के लिए ही आरम्भ हुए,जैसे स्वयंवर ही ,कालांतर में मात्र (विवाह की ) रस्मो अदायगी तक सीमित रह गए ! उपयुक्त वर के तलाश की कवायद तो आज भी जारी दिखती है (वधू की कम ही ! ) ,कई उपक्रम किये जाते हैं ,पंडित -फलित ज्योतिषी गणना करते हैं ("गन्ना मिलाना ",=गुण मिलाना ) फिर एक आदर्श जोड़ा /जोड़ी को सामाजिक हरी झंडी मिल जाती है ! मगर पूर्वजों द्वारा सही जोड़े के मिलान की 'कुदरती जरूरत' की समझ जहां विस्मित करती है वहीं आजकल इसके नाम पर चल रहे समझौते इस व्यवस्था के मूल उद्येश्य पर ही प्रश्नचिहन लगाते हैं !