जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।
परम हंस-सम बाल्य काल में सब सुख पाये,
जिसके कारण -धूल-भरे हीरे' कहलाये।
हम खेले-कूदे हर्ष-युक्त जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि! तुमको निरख मग्न क्यों न हों मोद में।
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जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।
परम हंस-सम बाल्य काल में सब सुख पाये,
जिसके कारण -धूल-भरे हीरे' कहलाये।
हम खेले-कूदे हर्ष-युक्त जिसकी प्यारी गोद में,
हे मातृभूमि! तुमको निरख मग्न क्यों न हों मोद में।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित मातृभूमि नामक कविता की इन पंक्तियों का भावार्थ इस प्रकार है...
अर्थ ⦂ कवि कहते हैं कि जिस मातृभूमि में हमने जन्म लिया। जिस मातृभूमि की मिट्टी में हम खेल कूद कर बड़े हुए हैं। जिस मातृभूमि पर हम घुटनों के बल सरक-सरककर चलना सीखे हैं। जिस मातृभूमि की परम एवं पवित्र छाया में उन्हें अपने बचपन के सभी सुखों को भोगा हैं। जिस जिस मातृभूमि की छत्रछाया में पल्लिवत-पुष्पित होकर हम हीरे जैसे बने। जिस मातृभूमि की गोद में हम हंसते-खेलते रहे। ऐसी मातृभूमि को अनेक बार बारंबार नमन क्यों ना हो, ऐसी मातृभूमि के सम्मान की रक्षा लिए अपने प्राणों का भी बलिदान के करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
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