ज् ों सनकलकर बािल ों की ग ि से, थी अभी एक बूूँि कुछ आगे बढी, स चने सिर-सिर यही जी में लगी, आह क्य ों घर छ डकर मैं य ों कढी। िैि मेरे भाग्य में क्या है बिा, मैं बनूोंगी या समलूूँगी धूल में, या जलूूँगी सगर अूँगारे पर सकसी, चू पढूोंगी या कमल के िूल में। बह गई उस काल एक ऐसी हिा, िह समुोंिर ओर आई अनमनी। एक सुोंिर सीप का था मुूँह खुला। िह उसी में जा पडी म ती बनी।.
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i dont understand .... .
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