जाति प्रथा में विद्यमान गुणों और दोषों को स्पष्ट कीजिए
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जाति प्रथा के दोष
श्रम की गतिशीलता का गुण समाप्त कर देती है
: जाति-प्रथा ने काम या व्यवसाय को स्थायी रूप दे दिया है। व्यक्ति काम-धंधे को अपनी इच्छा और अपनी पसन्द के अनुसार छोड़ या अपना नहीं सकता और उसे अपनी जाति के निश्चित व्यवसाय को ही करना पड़ता है, भूले ही वह उसे पसन्द हो अथवा नापसन्द हो। इससे समाज की गतिशीलता ही समाप्त हो जाती है।
अस्पृश्यता :
जाति या प्रथा से अस्पृश्ता फैलती है। महात्मा गांधी के मतानुसार यह जाति-पाति की सर्वाधिक घृणित अभिव्यक्ति है। इससे देश का अधिकांश भाग पूर्ण दासता के लिए मजबूर हो जाता है
एकता की ठेस पहुंचती है :
इसने कठोरात पूर्वक एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करके और उनमें परस्पर किसी भी प्रकार के मेल-जोल को रोककर हिन्दू समाज की एकता और भा्रत्-भावना को बहुत हानि पहुंचाई है।
व्यक्ति और उसके काम में परस्पर सामंजस्य नहीं : जाति प्रथा का परिणाम बहुधा यह होता है कि व्यक्ति अपने लिये अपनी सुविधा एवं इच्छानुसार व्यवसाय नहीं चुन सकता और उसे गलत काम ही अपनाना पड़ जाता है। यह जरूरी नहीं है कि पुरोहित का पुत्र निश्चित रूप से पुरोहित ही होगा अथवा वह पुरोहित का कार्य करना चाहे अथवा उसमें एक सफल पुरोहित या धार्मिक नेता के सभी गुण विद्यमान होंगे। परन्तु जाति-पाति प्रथा के अन्र्तगत वह किसी अन्य कार्य के लिये आवश्यक योग्यता और इच्छा होते हुए भी कोई दूसरा काम नहीं कर सकता।
राष्ट्रीयता में रूकावट
: देश की एकता के लिये यह बाधा सिद्ध हुई है। निचले वर्ग के लोगों के साथ समाज में जो अपमानजनक व्यवहार होता है उसके कारण वे असंतुष्ठ रहते है। जैसा कि जी.एस.गुर्रे ने कहा है कि जाति-भक्ति की भावना ही दूसरी जातियों के प्रति विरोध भाव को उत्पन्न करके समाज में असव्स्थ और हानिकारक वातावरण पैदा कर देती है और राष्ट्रीयता चेतना के प्रसार के मार्ग को अवरूद्ध करती है।
सामाजिक प्रगति में रूकावट है :
यह राष्ट्र की सामाजिक और आर्थिक प्रगति में बड़ी भारी रूकावट है। लोग धर्म सिद्धांत में विश्वास करने के कारण रूढ़िवादी बन जाते है। राष्ट्र की तथा भिन्न-भिन्न समूहों और वर्गो की आर्थिक स्थिति ज्यों ही रहती है इससे उनमें निराशा और आलस्य पैदा होकर उनकी आगे बढ़ने और कार्य करने की वृति ही नष्ट हो जाती है।
अप्रजातान्त्रिक :
अन्त में, क्योंकि जाति-प्रथा के अन्तर्गत जाति, रूप, रंग और वंश का विचार किये बिना सब लोगों को उनके समान अधिकार प्राप्त नहीं होते इसलिये यह अप्रजातान्त्रिक है। निम्न वर्गो के लोगों के मार्ग में विशेष रूप में रूकावटे डाली जाती है उन्हे बौद्विक, मानसिक और शारीरिक विकास की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी जाती और न ही उसके लिये अवसर ही प्रदान किये जाते है। जाति-प्रथा के गुण दोषा पर भी भली-भांति विचार करने से पता चलता है कि इसमें गुणों की अपेक्षा दोष अधिक होते है। जैसा कि जेम्स ब्राइस कहता है कि सामाजिक रचना एक महत्वपूर्ण तत्व है। जहां के लोगों को भाषा के आधार पर या धर्म के आधार पर जातीय भेदों के आधार पर अथवा वंश या व्यवसाय के अनुसार समूहीकृत जाति-भेदों के आधार पर बांट दिया जाता है वहां पर लोगों में परस्पर अविश्वास और विरोध पैदा हो जाता है और उनमें परस्पर मिलकर काम करना अथवा विभाग के लिये दूसरों के समान अधिकारों को स्वीकार करना अंसभव हो जाता है। यद्यपि सजातीयता वर्ग-संघर्षो को रोक नहीं सकती और फिर भी समुदाय के प्रत्येक वर्ग को दूसरों के मन को समझने में सहायता करती और राष्ट्र के समान मत पैदा करती है।