Social Sciences, asked by kumarsachin98656, 8 hours ago

जाति पर अम्बेडकर के विचार क्या थे

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Answered by amaysingh1234
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डॉ. आंबेडकर का कहना था कि कांग्रेस के जन्म से ही उसमें दो तरह के सुधार की बातें होती थीं – राजनीतिक सुधार और सामाजिक सुधार। कुछ विचारक दोनों को साथ लेकर चलना चाहते थे और कुछ सामाजिक सुधारों पर राजनीतिक सुधारों को वरीयता देते थे। यहां उनके सामाजिक सुधार का अर्थ था – परिवार के अंदर का सुधार जैसे बालिका विवाह पर रोक, विधवा विवाह को प्रोत्साहन आदि। किन्तु इसमें जाति तोड़ने का समाज सुधार सम्मिलित नहीं था। और जाति तोड़े बिना भारत में कोई समाज सुधार संभव नहीं है क्योंकि जाति सामाजिक बुराइयों का मूल कारण है। यही कारण है कि समाज सुधार जल्दी ही विफल हो गया और कांग्रेस का प्रोग्राम राजनीतिक सुधार बन गया। डॉ. आंबेडकर के अनुसार कोई भी राजनीतिक क्रांति तभी सफल हो सकती है, जब सामाजिक – धार्मिक क्रांति हो चुकी हो। किन्तु कांग्रेस ने जाति तोड़ने को लेकर कोई भी सामाजिक क्रांति नहीं की।[1]

उनके अनुसार जाति प्रथा केवल श्रम का विभाजन नहीं है, बल्कि यह श्रमिकों का भी विभाजन है। यह श्रेणीबद्ध व्यवस्था है जिसमे श्रमिकों का विभाजन एक के ऊपर दूसरे के क्रम में होता है। यहां श्रम का विभाजन जन्म के आधार पर है, जो प्राकृतिक नहीं है। इसमें अभिरुचि और कार्यकुशलता के लिए कोई जगह नहीं है। इस प्रणाली में बहुत से लोग ऐसे हैं जो ऐसे श्रम में लगे हैं जिसमें उनकी कोई रूचि नहीं है। अतः आर्थिक दृष्टि से यह हानिकारक प्रणाली है।

हिन्दुओं के नैतिक आचार समाज के लिए बड़े ही हानिकारक हैं। जाति प्रथा ने समाज हित की चेतना को नष्ट कर दिया है। जाति व्यवस्था के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति बन पाना असम्भव है। इनकी निष्ठा अपनी जाति तक ही सीमित है। [2]

यह प्रश्न कि कैसा समाज होना चाहिए ? तो उनका मानना है कि ऐसा समाज जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित हो। लोकतंत्र केवल सरकार का एक रूप नहीं है, बल्कि लोकतंत्र वह है जहां लोग सोच-समझकर विचार-विमर्श करें, परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करे, और सब उसमें हिस्सा लें।[3] लोकतंत्र का आधार है अपने साथियों के प्रति आदर सम्मान।

उनके अनुसार, हिन्दू व्यवस्था ने अछूत और आदिवासी जातियों के रूप में जिन वर्गों को जन्म दिया है, उनका अस्तित्व कैसे आया, यह बड़ा चिंतन का विषय है। यदि हिन्दू सभ्यता को इन वर्गो के जनक के रूप में देखा जाये, तो यह ‘ सभ्यता’ नहीं कहला सकती। यह मानवता का दबाये रखने और गुलाम बनाने का एक षड़यंत्र है। इसका ठीक नामकरण शैतानियत होना चाहिए। [4]

दूसरे शब्दों में, हिन्दू धर्म और उसका दर्शन ब्राह्मण के लिए स्वर्ग और साधारण मनुष्य के लिए नर्क है। यह कहना कि हिन्दू धर्म का फलां हिस्सा रूढ़िवादी है, जाति को मानता है, और फलां हिस्सा ठीक-ठाक है, क्योंकि जाति को नहीं मानता। इस संबंध में उनका कहना था कि मनुस्मृति, वेद और भगवत गीता का सार एक ही है। ये सभी एक ही नमूने पर बने हुए हैं। इन सभी के भीतर एक ही प्रकार का धागा चलता है, और वास्तव में ये सभी एक वस्त्र के हिस्से हैं। [5] अतः उन्होंने हिन्दू धर्म के सभी ग्रंथों को ही जाति को बढ़ावा देने वाला बताया।डॉ. आंबेडकर का कहना था कि कांग्रेस के जन्म से ही उसमें दो तरह के सुधार की बातें होती थीं – राजनीतिक सुधार और सामाजिक सुधार। कुछ विचारक दोनों को साथ लेकर चलना चाहते थे और कुछ सामाजिक सुधारों पर राजनीतिक सुधारों को वरीयता देते थे। यहां उनके सामाजिक सुधार का अर्थ था – परिवार के अंदर का सुधार जैसे बालिका विवाह पर रोक, विधवा विवाह को प्रोत्साहन आदि। किन्तु इसमें जाति तोड़ने का समाज सुधार सम्मिलित नहीं था। और जाति तोड़े बिना भारत में कोई समाज सुधार संभव नहीं है क्योंकि जाति सामाजिक बुराइयों का मूल कारण है। यही कारण है कि समाज सुधार जल्दी ही विफल हो गया और कांग्रेस का प्रोग्राम राजनीतिक सुधार बन गया। डॉ. आंबेडकर के अनुसार कोई भी राजनीतिक क्रांति तभी सफल हो सकती है, जब सामाजिक – धार्मिक क्रांति हो चुकी हो। किन्तु कांग्रेस ने जाति तोड़ने को लेकर कोई भी सामाजिक क्रांति नहीं की।[1]

उनके अनुसार जाति प्रथा केवल श्रम का विभाजन नहीं है, बल्कि यह श्रमिकों का भी विभाजन है। यह श्रेणीबद्ध व्यवस्था है जिसमे श्रमिकों का विभाजन एक के ऊपर दूसरे के क्रम में होता है। यहां श्रम का विभाजन जन्म के आधार पर है, जो प्राकृतिक नहीं है। इसमें अभिरुचि और कार्यकुशलता के लिए कोई जगह नहीं है। इस प्रणाली में बहुत से लोग ऐसे हैं जो ऐसे श्रम में लगे हैं जिसमें उनकी कोई रूचि नहीं है। अतः आर्थिक दृष्टि से यह हानिकारक प्रणाली है।

हिन्दुओं के नैतिक आचार समाज के लिए बड़े ही हानिकारक हैं। जाति प्रथा ने समाज हित की चेतना को नष्ट कर दिया है। जाति व्यवस्था के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति बन पाना असम्भव है। इनकी निष्ठा अपनी जाति तक ही सीमित है। [2]

यह प्रश्न कि कैसा समाज होना चाहिए ? तो उनका मानना है कि ऐसा समाज जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित हो। लोकतंत्र केवल सरकार का एक रूप नहीं है, बल्कि लोकतंत्र वह है जहां लोग सोच-समझकर विचार-विमर्श करें, परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करे, और सब उसमें हिस्सा लें।[3] लोकतंत्र का आधार है अपने साथियों के प्रति आदर सम्मान।

उनके अनुसार, हिन्दू व्यवस्था ने अछूत और आदिवासी जातियों के रूप में जिन वर्गों को जन्म दिया है, उनका अस्तित्व कैसे आया, यह बड़ा चिंतन का विषय है। यदि हिन्दू सभ्यता को इन वर्गो के जनक के रूप में देखा जाये, तो यह ‘ सभ्यता’ नहीं कहला सकती। यह मानवता का दबाये रखने और गुलाम बनाने का एक षड़यंत्र है। इसका ठीक नामकरण शैतानियत होना चाहिए। [4]

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Answered by Anonymous
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Poverty is a state or condition in which a person or community lacks the financial resources and essentials for a minimum standard of living. Poverty means that the income level from employment is so low that basic human needs can't be met.

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