जाति उध्दव किस प्रकार होता है
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भोगोलिक पथक्करण = भोगोलिक आकृति जैसे जी नदी ,पहाड़ आदि जो की एक स्पीशीज के सद्स्यो के बीच जींस के प्रवाह को रोकते है जिसके कारण किसी एक स्पीशीज के जीव अलग अलग होकर दो स्पीशीज का निर्माण करते है इस प्रकम को भोगोलिक पथक्करण कहते है। लैगिक जनन करने वाले जीवो में भोगोलिक पथक्करण के कारण ही जाति उद्भव होता है।
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प्राकृतिक वरण के सिद्धांत की पुष्टि के लिये उन्होंने "जीवन-संघर्ष (Struggle for Existence) " का एक सहायक सिद्धांत उपस्थित किया। जीवन संघर्ष जीवविज्ञान में प्रयुक्त होनेवाली एक उक्ति है, जिसका तात्पर्य है अपने अस्तित्व के लिये जीवों का परस्पर संघर्ष। इसके अनुसार जीवों में जनन बहुत ही द्रुत गति और गुणोत्तर अनुपात में होता है, किंतु जीव जितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं, उतनी संख्या में जीने नहीं पाते, क्योंकि जिस गति से उनकी संख्या में वृद्धि होती है उसी अनुपात में वासस्थान और भोजन में वृद्धि नहीं होती, वरन् स्थान और भोजन सीमित रहते हैं। अतएव वासस्थान और भोजन के लिये जीवों में अनवरत संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष में बहुसंख्या में जीव मर जाते हैं और केवल कुछ ही जीवित रह पाते हैं। इस प्रकार प्रकृति में विभिन्न जीवों की संख्या में एक संतुलन बना रहता है। उदाहरण के लिये हाथी जैसा मंद गति से जनन करनेवाला प्राणी भी यदि बिना किसी बाधा के गुणोत्तर अनुपात में जनन करने के लिये स्वतंत्र कर दिया जाय तो चार्ल्स डार्विन ने हिसाब लगाकर दिखाया कि एक जोड़ा हाथी, जिसकी आयु 100 वर्ष तक हो और 30 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर जनन प्रारंभ करे तथा अपने संपूर्ण जीवन काल में केवल छ: बच्चे दे और ये बच्चे भी माँ बाप की भाँति जनन करने लगें तथा यही क्रम बना रहे तो 750 वर्षों में सब हाथियों की संख्या एक करोड़ नब्बे लाख हो जाएगी।
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